मंत्रदीक्षा के रूप में गायत्री की अवधारणा करते समय उपनयन-संस्कार कराने की भी आवश्यकता पड़ती है । इसी प्रक्रिया को द्विजत्व की मानवीय गरिमा के अनुरूप जीवन को परिष्कृत करने की अवधारणा भी कहते हैं । जनेऊ पहनना, उसे कंधे पर धारण करने का तात्पर्य जीवनचर्या को-कायकलेवर को देव मंदिर-गायत्री देवालय बना लेना माना जाता है । यज्ञोपवीत में नौ धागे होते हैं । इन्हें नौ मानवीय विशिष्टता को उभारने वाले सद्गुण भी कहा जा सकता है । एक गुण को स्मरण रखे रहने के लिए एक धागे का प्रावधान इसीलिए है कि इस अवधारणा के साथ-साथ उन नौ सद्गुणों को समुन्नत बनाने के लिए आद्यशक्ति गायत्री की समर्थ साधना में निरन्तर प्रयत्नशील रहा जाए, जो अनेक विभूतियों और विशेषताओं से मनुष्य को सुसंपन्न बनाती हैं ।
सौरमंडल में नौ सदस्य ग्रह हैं । रत्नों की संख्या भी नौ मानी जाती है । अंकों की श्रंखला भी नौ पर समाप्त हो जाती है । शरीर में नौ द्वार हैं । इसी प्रकार अनेकानेक सद्गुणों की, धर्म-लक्षणों की गणना में नौ को प्रमुखता दी गई है । वे पास में हों तो समझना चाहिए कि पुरातनकाल में नौ लखा हार की जो प्रतिष्ठा थी, वह अपने को भी करतलगत हो गई । ये नौ गुण इस प्रकार है -
(१) श्रमशीलता- समय, श्रम और मनोयोग को किसी उपयुक्त प्रयोजन में निरंतर लगाए रहना । आलस्य-प्रमाद को पास न फटकने देना । समय का एक क्षण भी बरबाद न होने देना । निरंतर कार्य में संलग्न रहना ।
(२) शिष्टता- शालीनता, सज्ज्नता, भलमनसाहत का हर समय परिचय देना । अपनी नम्रता और दूसरों की प्रतिष्ठा का परिचय देना । दूसरों के साथ वही व्यवहार करना, जो औरों से अपने लिए चाहा जाता है । सभ्यता, सुसंस्कारिता और अनुशासन का निरंतर ध्यान रखना । मर्यादाओं का पालन और वर्जनाओं से बचाव का सतर्कतापूर्वक ध्यान रखना ।
(३) मितव्ययिता- 'सादा जीवन उच्च विचार' की अवधारणा। उद्घत-श्रंगारिक शेखीखोरी, अमीरी का अहंकारी प्रदर्शन तथा अन्य रूढ़ियों-कुरीतियों से जुड़े हुए अपव्यय से बचना सादगी है, जिसमें चित्र-विचित्र फैशन बनाने और कीमती जेवर धारण करने की कोई गुन्जाइश नहीं है । अधिक खरचीले व्यक्ति प्रायः बेईमानी पर उतारू तथा ऋणी देखे जाते हैं । उनमें ओछापन, बचकानापन और अप्रामाणिकता-अदूरदर्शिता का भी आभास मिलता है ।
(४) सुव्यस्था- हर वस्तु को सुव्यवस्थित, सुसज्जित स्थिति में रखना । फुहड़पन और अस्त-व्यस्तता, अव्यवस्था का दुर्गुण किसी भी प्रयोजन मे झलकने न देना । समय का निर्धारण करते हुए कसी हुई दिनचर्या बनाना और उसका अनुशासनपूर्वक परिपालन करना । चुस्त- दुरूस्त रहने के ये कुछ आवश्यक उपक्रम हैं । वस्तुएँ यथास्थान न रखने पर वे कूड़ा-कचरा हो जाती हैं । इसी प्रकार अव्यवस्थित व्यक्ति भी असभ्य और असंस्कृत माने जाते हैं ।
(५) उदार सहकारिता- मिल-जुलकर काम में रस लेना। पारस्परिक आदान-प्रदान का स्वभाव बनाना । मिल-बाँटकर खाने और हँसते-हँसाते समय गुजारने की आदत डालना । इसे सामाजिकता एवं सहकारिता भी कहा जाता है । अब तक की प्रगति का यही प्रमुख आधार रहा है और भविष्य भी इसी रीति-नीति को अपनाने पर समुन्नत हो सकेगा। अकेलेपन की प्रवृत्ति तो मनुष्य को कुत्सित और कुंठाग्रस्त ही रखती है ।
उर्पयुक्त पाँच गुण पंचशील कहलाते हैं, व्यवहार में लाए जाते हैं तब स्पष्ट दीख पड़ते हैं, इसलिए इन्हें अनुशासन-वर्ग में गिना जाता है । धर्म-धारण भी इन्हीं को कहते हैं । इनके अतिरिक्त भाव-श्रद्घा से संबंधित उत्कृष्टता के पक्षधर स्वभाव भी हैं, जिन्हें श्रद्घा-विश्वास स्तर पर अंतःकरण की गहराई में सुस्थिर रखा जाता है । इन्हें आध्यात्मिक देव-संपदा भी कह सकते हैं । आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता का विविध परिचय इन्हीं चार मान्यताओं के आधार पर मिलता है । चार वेदों का सार-निष्कर्ष यही है । चार दिशा-धाराएँ तथा वर्णाश्रम धर्म के पीछे काम करने वाली मूल मान्यताएँ भी यही हैं ।
(६) समझदारी- दूरदर्शी विवेकशीलता । नीर-क्षीर विवेक और औचित्य का ही चयन । परिणामों पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हुए कुछ करने का प्रयास । जीवन की बहुमूल्य संपदा के एक-एक क्षण का श्रेष्ठतम उपयोग । दुष्प्रवृत्तियों के साथ जुड़ी हुई दुर्घटनाओं के संबंध में समुचित सतर्कता का अवगाहन ।
(७) ईमानदारी- आर्थिक और व्यावहारिक क्षेत्र में इस प्रकार का बरताव जिसे देखने वाला सहज सज्जनता का अनुमान लगा सके, विश्वस्त समझ सके और व्यवहार करने में किसी आशंका की गुन्जाइश न रहे । भीतर और बाहर को एक समझे । छल, प्रवंचना, अनैतिक आचरण से दृढ़तापूर्वक बचना ।
(८) जिम्मेदारी- मनुष्य यों तो स्वतंत्र समझा जाता है, पर वह जिम्मेदारियों के इतने बंधनों से बँधा हुआ है कि अपने-परायों में से किसी के भी साथ अनाचरण की गुंजाइश नहीं रह जाती । ईश्वर प्रदत्त शरीर, मानस एवं विशेषताओं में से किसी का भी दुरूपयोग न होने पाए । परिवार के सदस्यों से लेकर देश, धर्म, समाज व संस्कृति के प्रति उत्तरदायित्वों का तत्परतापूर्वक निर्वाह । इसमें से किसी में भी अनाचार का प्रवेश न होने देना ।
(९) बहादुरी- साहसिकता, शौर्य और पराक्रम की अवधारणा । अनीति के सामने सिर न झुकाना । अनाचार के साथ कोई समझौता न करना । संकट देखकर घबराहट उत्पन्न न होने देना । अपने गुण-कर्म-स्वभाव में प्रवेश करती जाने वाली अवांछनीयता से निरंतर जूझना और उसे निरस्त करना । लोभ, मोह, अहंकार, कुसंग, दुर्व्यसन आदि सभी अनौचित्यों को निरस्त कर सकने योग्य संघर्षशीलता के लिए कटिबद्घ रहना ।
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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