पाँच क्रियापरक और चार भावनापरक, (1-श्रमशीलता 2- शिष्टता 3- मितव्ययिता 4- सुव्यस्था 5- उदार सहकारिता 6- समझदारी 7- ईमानदारी 8- जिम्मेदारी 9- बहादुरी) इन नौ गुणों के समुच्चय को ही धर्म-धारणा कहते हैं । गायत्री-मंत्र के नौ शब्द इन्हीं नौ दिव्य-संपदाओं को धारण किए रहने की प्रेरणा देते हैं । यज्ञोपवीत के नौ धागे भी यही हैं । उन्हें गायत्री की प्रतीक प्रतिमा माना गया है और इनके निर्वाह के लिए सदैव तत्परता बरतने के लिए, उसे कंधे पर धारण कराया जाता है, अर्थात् मानवीय गरिमा के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए नौ अनुशासन भरे उत्तरदायित्व कंधे पर धारण करना ही वस्तुतः यज्ञोपवीत धारण का मर्म है । इन्हीं का सच्चे अर्थों में गायत्री मंत्र की जीवनचर्या में हृदयंगम कराया जाता है ।
गायत्री मंत्र की साधना से व्यक्ति में ये नौ सद्गुण उभरते हैं । इसी बात को इन शब्दों में भी कहा जा सकता है कि जो इन नौ गुणों का अवधारण करता है, उसी के लिए यह संभव है कि गायत्री मंत्र में सन्निहित ऋद्घि-सिद्घियों को अपने में उभरता देखे । गंदगी वाले स्थान पर बैठने के लिए कोई सुरूचि संपन्न भला आदमी तैयार नहीं होता, फिर यह आशा कैसे की जाए कि निकृष्ट स्तर का चिंतन, चरित्र और व्यवहार अपनाए रहने वालों पर किसी प्रकार का दैवी अनुग्रह बरसेगा और उन्हें यह गौरव मिलेगा, जो देवत्व के साथ जुड़ने वालों को मिला करता है ।
ज्ञान और कर्म का युग्म है । दोनों की सार्थकता इसी में है कि वे दोनों साथ-साथ रहें, एक-दूसरे को प्रभावित करें और देखने वालों को पता चले कि जो सीखा, समझा, जाना और माना गया है, वह मात्र काल्पनिक न होकर इतना सशक्त भी है कि क्रिया को, विधि-व्यवस्था को अपने स्तर के अनुरूप बना सके ।
जीवन-साधना से जुड़ने वाले गायत्री महामंत्र के नौ अनुशासनों का ऊपर उल्लेख हो चुका है । इन्हें अपने जीवनक्रम के हर पक्ष में समन्वित किया जाना चाहिए अथवा यह आशा रखें कि यदि श्रद्घा-विश्वासपूर्वक सच्चे मन से उपासना की गई हो तो उसका सर्वप्रथम परिचय इन सद्गुणों की अभिवृद्घि के रूप में परिलक्षित होगा । इसके बाद वह पक्ष आरंभ होगा, जिससे अलौकिक, आध्यात्मिक, अतींद्रिय अथवा समृद्घियों, विभूतियों के रूप में प्रमाण-परिचय देने की आशा रखी जाती है ।
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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