बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

गायत्री और साविता का उद्भव

पौराणिक कथा-प्रसंग में चर्चा आती है कि सृष्टि के आरंभकाल में सर्वत्र मात्र जलसंपदा ही थी । उसी के मध्य में विष्णु भगवान् शयन कर रहे थे । विष्णु की नाभि में कमल उपजा । कमल पुष्प पर ब्रह्माजी अवतरित हुए । वे एकाकी थे, अतः असमंजसपूर्वक अनुरोध लगे कि मुझे क्यों उत्पन्न किया गया है ? क्या करूँ ? कुछ करने के लिए साधन कहाँ से पाऊँ ? इन जिज्ञासाओं का सामाधान आकावाणी ने किया और कहा- 'गायत्री के माध्यम से तप करें, आवश्यक मार्गदर्शन भीतर से ही उभरेगा ।' उनने वैसा ही किया और आकाशवाणी द्वारा बताए गए गायत्री मंत्र की तपपूर्वक साधना करने लगे । पूर्णता की स्थिति प्राप्त हुई । गायत्री दो खंड बनकर दर्शन देने एवं वरदान-मार्गदर्शन से निहाले करने उतरी । उन दो पक्षों में से एक को गायत्री, दूसरे को सावित्री नाम दिया गया । गायत्री अर्थात् तत्वज्ञान से संबंधित पक्ष । सावित्री अर्थात् भौतिक प्रयोजनों में उसका जो उपयोग हो सकता है, उसका प्रकटीकरण । जड़-सृष्टि-पदार्थ-संरचना सावित्री शक्ति के माध्यम से और विचारणा से संबंधित भाव-संवेदना, आस्था, आकांक्षा, क्रियाशीलता जैसी विभूतियों का उद्भव गायत्री के माध्यम से प्रकट हुआ । यह संसार जड़ और चेतना के-प्रकृति और परब्रह्म के समन्वय से ही दृष्टिगोचर एवं क्रियारत दीख पड़ता है । 
इस कथन का सारतत्व यह है कि गायत्री-दर्शन में सामूहिक सद्बुद्घि को प्रमुखता मिली है । इसी आधार को जिस-तिस प्रकार से अपनाकर मनुष्य मेधावी प्राणवान् बनता है । भौतिक पदार्थो को परिष्कृत करने एवं उनका सदुपयोग कर सकने वाला भौतिक विज्ञान सावित्री विद्या का ही एक पक्ष है । दोनों को मिला देने पर समग्र अभ्युदय बन पड़ता है । पूर्णता के लिए दो हाथ, दो पैर आवश्यक हैं । दो फेफड़े, दो गुरदे भी अभीष्ट हैं । गाड़ी दो पहियों के सहारे ही चल पाती हैं, अस्तु, यदि गायत्री महाशक्ति का समग्र लाभ हो तो उसके दोनों ही पक्षों को समझना एवं अपनाना आवश्यक है । 
तत्वज्ञान मान्यताओं एवं भावनाओं को प्रभावित करता है । इन्हीं का मोटा स्वरूप चिंतन, चरित्र एवं व्यवहार है । गायत्री का तत्वज्ञान इस स्तर की उत्कृष्टता अपनाने के लिए सद्विषयक विश्वासों को अपनाने के लिए प्रेरणा देता है । उत्कृष्टता, आदर्शवादिता, मर्यादा एवं र्कत्तव्यपरायणता जैसी मानवीय गरिमा को अक्षुण बनाए रहने वाली आस्थाओं को गायत्री का तत्वज्ञान कहना चाहिए । 

-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

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