भारतीय संस्कृति के बहूमूल्य निर्धारणों और अनुशासनों का सारतत्व खोजना हो तो उसे चौबीस अक्षरों वाले गायत्री महामंत्र का मंथन करके जाना जा सकता है । भारतीय संस्कृति का इतिहास खोजने से पता लग सकता है कि प्राचीनकाल में इस समुद्र मंथन से कितने बहुमूल्य रत्न निकले थे तथा भारमभूमि को 'स्वार्गादपि गरीयसी' बनाने में उस मंथन से निकले नवनीत ने कितने बड़ी भूमिका निबाही थी । मनुष्य में देवत्व का उदय कम-से कम भारतभूमि का कमलपुष्प तो कहा ही जा सकता है । जब वह फलित हुआ तो उसका अमरफल इस भारतभूमि को 'स्वार्गादपि गरीयसी' बना सकने में समर्थ हुआ ।
भारत को जगद्गुरू, चक्रवती व्यवस्थापक और दिव्यसंपदाओं का उद्गम कहा जाता है । समस्त विश्व में इसी देश के अजस्त्र अनुदान अनेक रूपों में बिखरे हैं । यह कहने में कोई अत्युक्ति प्रतीत नहीं होती कि संपदा, सभ्यता और सुसंस्कारिता की प्रगतिशीलता इसी नर्सरी में जमी और उसने विश्व को अनेकानेक विशेषताओं और विभूतियों से सुसंपन्न किया ।
भारतीय संस्कृति का तत्वदर्शन गायत्री महामंत्र के चौबीस अक्षरों की व्याख्या-विवेचना करते हुए सहज ही खोज और पाया जा सकता है । गायत्रीगीता, गायत्रीस्मृति, गायत्रीसंहिता, गायत्रीरामयण, गायत्री-लहरी आदि संरचनाओं को कुरेदने से अंगारे का वह मध्य भाग प्रकट होता है, जो मुद्दतों से राख की मोटी परत जम जाने के कारण अदृश्य- अविज्ञात स्थिति में दबा हुआ पड़ा था।
कहना न होगा कि गरिमामय व्यक्तित्व ही इस संसार की अगणित विशेषताओं, संपदाओं एवं विभूतियों का मूलभूत कारण है । वह उभरे तो मनुष्य देवत्व का अधिष्ठाता और नर से नारायण बनने की संभावनाओं से भरा-पूरा है । गौरव-गरिमा मानवता के साथ किस प्रकार अविच्छिन्न रूप से जुड़ी इसका सारतत्व गायत्री के अक्षरों को महासमुद्र मानकर उसमें डुबकी लगाकर खोजा, देखा और पाया जा सकता है ।
मात्र अक्षर दोहरा लेने से तो स्कूली बच्चे प्रथम कक्षा में ही बने रहते हैं । उन्हें प्रशिक्षित बनने के लिए वर्णमाला, गिनती जैसे प्रथम चरणों से आगे बढ़ाना पड़ता हैं । इसी प्रकार गायत्री मंत्र के साथ जो विभूतियाँ अविच्छिन्न रूप से आबद्घ हैं, मात्र थोड़े से अक्षरों को याद कर लेने या दोहरा देने से उसमें वर्णित विशेषताओं को उपलब्ध करना नहीं माना जा सकता । उनमें सन्निहित तत्वज्ञान पर भी गहरी दृष्टि डालनी होगी । इतना ही नहीं, उसे हृदयंगम भी करना होगा और जीवनचर्या में नवनीत को इस प्रकार समाविष्ट करना होगा कि मलीनता का निराकरण तथा शालीनता का अनुभव संभव बन सके ।
संसार में अनेक धर्म-संप्रदाय हैं । उनके अपने-अपने धर्मशास्त्र हैं । उनमें मनुष्य को उत्कृष्टता का मार्ग अपनाने के लिए प्रोत्साहन दिया गया है और समय के अनुरूप अनुशासन का विधान किया गया है । भारतीय धर्म में भी वेदों की प्रमुखता है । वेद चार हैं । गायत्री मंत्र के तीन चरण और एक शीर्ष मिलने से चार विभाग ही बनते हैं । एक-एक विभाग में एक वेद का सारतत्व है । आकार और विवेचना की दृष्टि से अन्यान्य धर्मकाव्यों की तुलना में वेद ही भारी पड़ते हैं । उनका सारतत्व गायत्री के चार चरणों में है, इसलिए उसे संसार का सबसे छोटा धर्मशास्त्र भी कह सकते हैं । हाथी के पैर में अन्य सब प्राणियों के पदचिन्ह समा जाते हैं वाली उक्ति यहाँ भली प्रकार लागू होती है ।
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें