शनिवार, 21 अगस्त 2010

ज्ञान की पहली पाठशाला है नम्रता

एक बार विश्व के विभिन्न धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन करने के लिए एक युवा ब्रह्मचारी संसार भ्रमण पर निकला। देश-विदेश का भ्रमण कर और वहां के ग्रंथों का अध्ययन कर जब वह अपने देश लौटा, तो सबके पास इस बात की शेखी बघारने लगा कि उसके समान अधिक ज्ञानी-विद्वान् संसार में और कोई नहीं। जो कोई भी उस व्यक्ति के पास जाता, वह उससे प्रश्न किया करता कि क्या उसने, उससे बढ़कर कोई विद्वान् देखा है?

यह बात भगवान् बुद्ध के कानों में भी जा पहुंची। भगवान् बुद्ध ब्राह्मण-वेश में उस व्यक्ति के पास गये। ब्रह्मचारी ने उनसे प्रश्न किया, ''तुम कौन हो, ब्राह्मण?''

''अपनी देह और मन पर जिसका पूर्ण अधिकार है, मैं ऐसा एक तुच्छ मनुष्य हूं।'' बुद्धदेव ने जवाब दिया।

''भलीभांति स्पष्ट करो, ब्राह्मण! मेरे तो कुछ भी समझ में न आया।'' वह अहंकारी बोला।

बुद्धदेव बोले, ''जिस तरह कुम्हार घड़े बनाता है, नाविक नौकाएं चलाता है, धनुर्धारी बाण चलाता है, गायक गीत गाता है, वादक वाद्य बजाता है और विद्वान् वाद-विवाद में भाग लेता है, उसी तरह ज्ञानी पुरुष स्वयं पर ही शासन करता है।''

''ज्ञानी पुरुष भला स्वयं पर कैसे शासन करता है?'' - ब्रह्मचारी ने पुन: प्रश्न किया।

''लोगों द्वारा स्तुति-सुमनों की वर्षा किये जाने पर अथवा निंदा के अंगार बरसाने पर भी ज्ञानी पुरुष का मन शांत ही रहता है। उसका मन सदाचार, दया और विश्व-प्रेम पर ही केन्द्रित रहता है, अत: प्रशंसा या निंदा का उस पर कोई असर नहीं पड़ता। यहीं वजह है कि उसके चित्तसागर में शांति की धारा बहती रहती है।''

उस ब्रह्मचारी ने जब स्वयं के बारे में सोचा, तो उसे आत्मग्लानि हुई और बुद्धदेव के चरणों पर गिरकर बोला, ''स्वामी, अब तक मैं भूल में था। मैं स्वयं को ही ज्ञानी समझता था, किंतु आज मैंने जाना कि मुझे आपसे बहुत कुछ सीखना है।''

''हां, ज्ञान का प्रथम पाठ आज ही तुम्हारी समझ में आया है, बंधु! और वह है नम्रता। तुम मेरे साथ आश्रम में चलो और इसके आगे के पाठों का अध्ययन वहीं करना।''

कोई टिप्पणी नहीं:

LinkWithin

Blog Widget by LinkWithin