शनिवार, 31 जुलाई 2010

दो शब्दों ने बनाया दुनिया को दीवाना

दुनियाभर में भारत के दर्शन और हिन्दू धर्म का डंका बजाने वाले स्वामी विवेकानंद के मात्र दो शब्दों ने दुनिया को भारत का दीवाना बना दिया था और उस समय के विद्वानों को यह स्वीकार करना पड़ा था कि भारत सभी धर्मों की माँ है।

12 जनवरी 1863 को जन्मे स्वामी विवेकानंद का बचपन से ही धर्म और अध्यात्म की ओर रुझान था। धर्म-अध्यात्म के मर्मज्ञ विवेकानंद को दुनिया में भारतीय दर्शन की पताका फहराने का मौका उस समय मिला, जब 1893 में अमेरिका के शिकागो शहर में विश्व धर्म संसद का आयोजन हुआ। काफी कोशिशों के बाद विवेकानंद इस कार्यक्रम में भारत का प्रतिनिधित्व करने में कामयाब रहे।

विवेकानंद शोध साहित्य से जुड़े डॉ. रामकिशोर के अनुसार विश्व धर्म संसद में शुरुआत में अन्य देशों के प्रतिनिधियों ने स्वामी विवेकानंद को तुच्छ समझा और यह सोचकर कि वे एक गुलाम देश के प्रतिनिधि हैं, उन्हें पहले दिन सबसे अंत में बोलने का मौका दिया गया। विश्व धर्म संसद का उद्घाटन 11 सितंबर 1893 को हुआ और स्वामीजी को सबसे अंत में थोड़ी देर के लिए बोलने का मौका मिला।

रामकिशोर के अनुसार जब स्वामीजी ने अपने धर्म भाषण की शुरुआत में ‘अमेरिका के भाइयों और बहनों’ कहा तो वातावरण वहाँ मौजूद सात हजार लोगों की तालियों की गड़गड़हाहट से गूँज उठा। तालियाँ लगभग दो मिनट तक लगातार बजती रहीं। 

विवेकानंद को थोड़ी देर के लिए मौका मिला था, लेकिन उनके करिश्माई संबोधन का असर कुछ ऐसा हुआ कि उनका संबोधन निर्धारित समय से काफी अधिक देर तक चला।

स्वामीजी के करिश्मे का ऐसा असर हुआ कि धर्म संसद के अध्यक्ष डॉ. बोराज कह उठे-‘भारत धर्मों की माँ है, जिसका प्रतिनिधित्व भगवा कपड़े पहनने वाले स्वामी ने किया। उन्होंने श्रोताओं पर गहरा असर छोड़ा है। अपने इस संबोधन से विवेकानंद अमेरिका तथा तमाम दुनिया की प्रेस की सुर्खियों में छा गए और उन्हें ‘भारत का तूफानी संत’ करार दिया गया।

न्यूयॉर्क क्रिटिक ने लिखा- 'वे (स्वामी) किसी दैवीय शक्ति से युक्त वक्ता हैं।' न्यूयॉर्क हेराल्ड ने लिखा- ‘विवेकानंद नि:संदेह धर्म संसद की शीषर्तम हस्ती हैं।' विवेकानंद ने धर्म संसद में कई बार हिन्दू दर्शन पर भाषण दिया। 

रामकिशोर का कहना है कि शुरुआत में स्वामीजी को तुच्छ समझकर उन्हें सबसे अंत में बोलने का मौका मिलता था, लेकिन बाद में उनका भाषण इसलिए अंत में रखा जाता था कि लोग उनका भाषण सुनने के लिए ही आखिर तक बैठे रहें।

धर्म संसद का समापन 27 सितंबर 1893 को हुआ, जिसमें सार्वभौमिकता और धार्मिक सहिष्णुता पर जोर दिया गया। इसके बाद स्वामी विवेकानंद की ख्याति ऐसी फैली कि उन्हें दुनिया के कई देशों ने अपने यहाँ धर्म पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया।

रामकिशोर का कहना है कि स्वामीजी एक प्रखर वक्ता ही नहीं, बल्कि दूरदृष्टा भी थे। धर्म संसद में भाग लेने के बाद वे जब कोलंबो के जरिए 1897 में भारत पहुँचे तो उन्होंने भविष्यवाणी की कि भारत 50 साल बाद आजाद हो जाएगा और उनकी भविष्यवाणी बिल्कुल सही साबित हुई।

स्वामीजी ने रामकृष्ण मठ और मिशन की स्थापना के साथ ही हिन्दू दर्शन के प्रचार-प्रसार के लिए काफी कुछ किया। बीसवीं सदी के बहुत से विद्वानों और नेताओं ने स्वामी विवेकानंद के प्रभाव को स्वीकार किया। 

स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने एक बार कहा था-'स्वामी विवेकानंद ने हिन्दूवाद और भारत को बचाने का काम किया।' 

सुभाषचंद्र बोस का कहना था-‘स्वामीजी आधुनिक भारत के निर्माता हैं।’ स्वामी विवेकानंद के जीवन चरित्र ने अनेक स्वतंत्रता सेनानियों को नया हौसला प्रदान करने का भी काम किया। अरबिन्दो घोष स्वामी विवेकानंद को अपना आध्यात्मिक गुरु मानते थे।

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