तपश्चर्या के मौलिक सिद्धान्त हैं - संयम और सदुपयोग। इन्द्रिय संयम से पेट ठीक रहने से स्वास्थ्य नहीं बिगडता। ब्रह्मचर्य पालन से मनोबल का भण्डार चुकने नहीं पाता। अर्थसंयम से नीति की कमाई से औसत भारतीय स्तर का निर्वाह करना पडता हैं, फलतः न दरिद्रता फटकती हैं और न बेईमानी की आवश्यकता पडती हैं। समय संयम से व्यस्त दिनचर्या बनाकर चलना पडता हैं, श्रम तथा मनोयोग को निर्धारित सत्प्रयोजनों में लगाये रहना पडता है, फलतः कुकर्मों के लिए समय ही नहीं बचता। जो बन पडता हैं श्रेष्ठ और सार्थक ही होता हैं। विचार संयम से एकात्मता सधती हैं। आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता का दृष्टिकोण विकसित होता हैं। भक्ति-योग, ज्ञान-योग और कर्म-योग की साधना सहज सधती रहती है।
संयम का अर्थ हैं बचत। चारों प्रकार का संयम बरतने पर मनुष्य के पास इतनी अधिक सामर्थ्य बच रहती हैं, जिसे परिवार निर्वाह के अतिरिक्त महान् प्रयोजनो में, प्रचूर मात्रा में भली प्रकार लगाया जाता रहे। संयमशील को वासना, तृष्णा और अहंता की खाई पाटने में मरना-खपना नहीं पडता, इसलिये सदुद्धेश्यों की दिशा में कदम बढाने की आवश्यकता पडने पर स्वार्थ-परमार्थ साथ-साथ सधते रहते हैं और हॅसती-हॅसाती, हलकी-फुलकी जिन्दगी जीने का अवसर मिल जाता है।
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