गुरुवार, 9 जून 2011

अखण्ड ज्योति जुलाई 1978

1. पवित्रता, महानता और संयमशीलता

2. प्रगति के लिए कल्मषों का निवारण आवश्यक

3. अभिवर्द्धन से पूर्व परिशोधन करना होगा

4. कर्मफल की सुनिश्चितता बनाम आस्तिकता

5. कर्मफल की अस्त-व्यस्तता एवं अपवाद श्रंखला

6. पापकर्मों का परिमार्जन मात्र प्रायश्चित से

7. प्रारब्ध न तो अन्धविश्वास हैं और न अकारण

8. तत्काल फल न मिले तो भ्रम में न पड़े

9. कुसंस्कारों का परिपाक कष्टों और संकटो के रूप में

10. कर्मफल भोगे बिना छुटकारा नहीं

11. आकस्मिक विपत्तियों और दुर्घटनाओं की परोक्ष पृष्ठभूमि

12. अनेक संकटों के कारण मनुष्य के संचित पापकर्म

13. व्यक्ति को प्रखर और भविष्य को उज्ज्वल बनाने की साधना

14. प्रौढ़ साधकों के उपयुक्त प्रखर साधना

15. सर्वतोमुखी प्रखरता उत्पन्न करने वाली तप-साधना

16. चन्द्रायण तप की शास्त्रीय परम्परा

17. चन्द्रायण तप और पंचकोषी योगाभ्यास

18. ब्रह्मवर्चस साधना में ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग का समन्वय

19. ब्रह्मवर्चस की योगाभ्यास साधना

20. साधना का पारस-कविता

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