मिल न पाए ‘सद्गुरू’ यदि, मनुज जन्म पाने के बाद।
कौन दिखलाएगा पथ, गुरू बिन भटक जाने के बाद।।
मातृवत् देते हैं सद्गुरू, प्यार अपने शिष्य को।
मार्गदर्शन पितृवत्, उज्ज्वल बनाए भविष्य को।
शिष्य को निर्भय बनाते, शरण में आने के बाद।।
है परम सौभाग्य, हमको मिल गए ऐसे गुरू।
पा जिन्हें, हम हो गए हैं, ब्रह्म के ही रूबरू।
और फिर क्या शेष रहता, ब्रह्म को पाने के बाद।।
तप, तितिक्षा की कठिन, कुछ अंश हमको दे दिया।
और इतना ही नहीं, गुरू-वंश हमको दे दिया।
हो गए हैं धन्य, उनके वंशधर होने के बाद।।
हो गया हैं स्वर्ण, लोहा गुरू चरण स्पर्श कर।
गुरू कायाकल्प करते, शीश को संस्पर्श कर।
क्यों रहें हम लोहवत्, पारस-परस पाने के बाद।।
ज्ञान की गंगा बहाकर, पतित, पावन कर दिए।
परिष्कृत चिंतन, चरित्र कर, जन-लुभावन कर दिए।
ऋणी जन्मों तक रहेंगे, ऋण चुका जाने के बाद।।
लोक-मंगल के लिए ही, ‘अंशदानी’ हम बने।
लोकसेवा के लिए ही, ‘समयदानी’ हम बनें।
धन्य होंगे श्रेय, सुख, सम्मान को पाने के बाद।।
मंगलविजय ‘विजयवर्गीय’
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें