गुरुवार, 6 जनवरी 2011

यदि मैं ही क्रुद्ध हो जाता तो.....

साधु स्वामीनाथन की कुटिया गाँव के पास ही थी। प्रायः प्रतिदिन सायंकाल ग्रामीण लोग उनके पास जाते और धर्मचर्चा का लाभ प्राप्त करते। 

जब संध्या भजन का समय आता गाँव के दो नटखट लड़के आ धमकते और कहते-‘‘महात्मन् ! आपसे ज्ञान प्राप्त करने आए हैं।’’ फिर शुरू करते गप्पें, बीच-बीच में साधु को चिढ़ाने, गुस्सा दिलाने वाली बातें भी करते जाते। उनका तो मनोरंजन होता, पर स्वामीनाथन का भजन-पूजन का समय निकल जाता। यह क्रम महीनों चलता रहा, पर साधु एक दिन भी गुस्सा नहीं हुए। बालकों के साथ बात करते हुए आप भी हँसते रहते।

बहुत दिन बाद भी जब वे नटखट लड़के उन्हें क्रुद्ध न कर सके तो उन्हें अपने आप पर क्षोभ हुआ। उन्होंने क्षमा माँगते हुए पूछा-‘‘महात्मन् ! हमने जान-बूझकर आपको चिढ़ाने का प्रयत्न किया फिर भी आप न कभी खीझे, न क्रुद्ध हुए।’’

स्वामीनाथन ने हँसते हुए कहा-‘‘ वत्स ! यदि मैं ही क्रुद्ध हो जाता तो आप सबको सिखा क्या पाता ?’’

स्वयं आवेश में आकर असंतुलित हो जाने वाले दूसरों का सुधार नहीं कर सकते। 

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