चीन के एक राजा थे। क्वांग नाम था। उन्होने अपने प्रधानमंत्री शूनशुनाओ को तीन बार प्रधानमंत्री पद पर बैठाया और तीन बार हटाया, पर वे न पद पर बैठने पर प्रसन्न हुए, न उतारे जाने पर दुखी-उद्विग्न। चीन के विद्वान किन वू ने उनसे उनकी मनःस्थिरता और दोनों ही स्थितियों में संतुलन का राज जानने का प्रयास किया तो वे बोले कि जब मुझे प्रधानमंत्री बनाया गया तो मेने सोचा कि अस्वीकार करना राजा का अपमान होगा। अपना कर्तव्य निभाया। जब निकाला गया तो सोचा कि मेरी उपयोगिता नहीं रही होगी तो पद से चिपका क्यों रहूं ? मेरा पद से लगाव कभी नहीं रहा। मंत्रीपद ने मुझे कुछ दिया नहीं, न उसके छिनने से मेरा कुछ गया। जो भी सम्मान मिला, वह पद का था, सो चला गया। उसमें अफसोस क्या करना। यदि मेरा था तो वह तो कभी कम होने वाला नही हैं।
यह है एक विवेकपूर्ण चिंतन का स्वरूप । हर लोकसेवी को इसी मनःस्थिति में रहकर एक ट्रस्टी भाव से काम करना चाहिए।
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