1909 की बात है। मथुरा नगर में आयोजित एक धर्म सम्मेलन में सभी धर्मों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया गया। सम्मेलन के अध्यक्ष थे स्वामी रामतीर्थ, जिनकी प्रसिद्धि अच्छी-खासी तब तक हो चुकी थी । न उनका कोई मठ था, न कोई आश्रम । ईसाइ धर्म के प्रतिनिधि फादर स्कॉट ने अपने धर्म का विवेचन करते हुए हिंदू धर्म पर कुछ भोंडे आक्षेप किए। यह उनने जान-बूझकर किया था, ताकि लोग उत्तेजित हों । श्रोतागण क्षुब्ध हो गए। स्वामी जी ने सबको शांत रहने का आग्रह करते हुए बड़ी विनम्रता से फादर स्कॉट के एक-एक आक्षेप का विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया। सबके समक्ष फादर ने माफी माँगी। वस्तुत: यह स्वामी जी के व्यक्तित्व, वाणी के तेज एवं उनके वाक्चातुर्य के साथ अगाध ज्ञान का ही परिणाम था। तीर्थराम से रामतीर्थ बने स्वामी जी ने 1906 की दीपावली के दिन `मौत का आह्वान ´ नामक लेख लिखा और यह कहते हुए -`` ऐ माँ की गोद के समान शांतिदायिनी मृत्यु ! आओ, इस भौतिक शरीर को ले जाओ । मैं शुद्ध, बुद्ध , निरूपराधि ब्रह्म हूँ।´´ गंगा में जलसमाधि ले ली । धन्य है भारतवर्ष , जिसे ऐसे संत, महापुरूषों की थाती मिली है।
विचार शक्ति इस विश्व कि सबसे बड़ी शक्ति है | उसी ने मनुष्य के द्वारा इस उबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है | उत्थान-पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है | वस्तुस्तिथि को समझते हुऐ इन दिनों करने योग्य एक ही काम है " जन मानस का परिष्कार " | -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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