समर्थ गुरू रामदास (1608-1682) ने साधना और ईश्वर साक्षात्कार के बाद पहली यात्रा काशी की की। वहाँ जब वे काशी विश्वनाथ के मंदिर पहुँचे तो वहाँ के कुछ पुजारीगणों ने अनकी वेशभूशा देखकर उन्हें बा्रह्मणों से भिन्न इतर जाति का मान लिया। उनने शिवजी की पिंडी के दर्शन करने से मना कर दिया। इस पर वे` जैसी प्रभु रामचंन्द्र जी की इच्छा´ कहते हुए बाहर से दंडवत् प्रणाम कर लौट पड़े। कहा जाता है कि उनके बाहर निकलते ही पुजारियों ने देखा कि पिंडी लुप्त हो गई है। वहाँ विद्यमान प्रतिमा भी नही है। वे घबराए। दौड़कर समर्थ रामदास से क्षमा-याचना की। जब वे पुन: मंदिर में आए, तब दृश्य पुन: पहले जैसा हो गया। इस चमत्कारी घटना ने काशी में उसका सम्मान बढ़ा दिया। चारों ओर उन्हीं की चर्चा होने लगी।
विचार शक्ति इस विश्व कि सबसे बड़ी शक्ति है | उसी ने मनुष्य के द्वारा इस उबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है | उत्थान-पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है | वस्तुस्तिथि को समझते हुऐ इन दिनों करने योग्य एक ही काम है " जन मानस का परिष्कार " | -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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