इस संदर्भ में गुरुसत्ता के हृदय के दर्द और उत्साह को स्वयं अनुभव करें विद्या अमृत है
प्रचलित सूत्र वाक्य है 'विद्ययाऽमृतमश्नुते' अर्थात् 'विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है ।' कहते हैं अमृतपान करने वाला मृत्यु से परे हो जाता है । इसीलिए देव संस्कृति में विद्या प्राप्त करने को सबसे अधिक महत्व दिया गया है ।
उपनिषदों में, श्रीराम चरित मानस में परमात्मा की माया (कुशलता) की दो धाराएँ कही गई है ।
१. विद्या और २. अविद्या । ईशोपनिषद् का निर्देश है कि इनमें से उपेक्षा किसी की भी नहीं की जा सकती । जो लोग किसी एक को जरूरत से ज्यादा महत्व देते हैं, वे जीवन के असंतुलन में भटक जाते हैं । जो संतुलित जीवन जीना चाहें, लौकिक और पारलौकिक दोनों जीवन धाराओं का लाभ उठाना चाहें, वे विद्या और अविद्या दोनों को जानें और उनका संतुलित उपयोग करें ।
अविद्या उसे कहा गया है, जो हमारे जीवन की नश्वर विभूतियों (शरीर, पद, प्रतिष्ठा, साधनों) आदि के विकास और उपयोग की कुशलता विकसित करती है । हमारे उक्त घटक भले ही नश्वर हैं, किन्तु प्रत्यक्ष जीवन के रहते उनके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता । परमार्थ आदि के लिए भी उनका सहारा तो लेना ही पड़ता है । कहा भी गया है कि 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ' अर्थात् धर्म-परमार्थ साधने के लिए भी शरीर ही पहला साधन बनता है । इसलिए उक्त विषयक कुशलता को, अविद्या को भी जानने-समझने, अपनाने की जरूरत है ।
विद्या उसे कहा गया है, जो हमारे जीवन की अनश्वर विभूतियों, आध्यात्मिक क्षमताओं के विकास और उपयोग की कुशलता विकसित करती है । अविद्या आश्रित विभूतियों का सदुपयोग भी इसी विद्या के द्वारा संभव होता है । विद्या की उपेक्षा होने से शरीर, साधन आदि की शक्तियाँ अनियंत्रित, उच्छृंखल होकर तमाम अनिष्ट पैदा करने लगती हैं ।
इसीलिए ईशोपनिषद् के ऋषि ने कहा है ''विद्या और अविद्या इन दोनों को समझो । अविद्या से मृत्यु को पार करो तथा विद्या से अमृत का पान करो । '' इसीलिए युगऋषि ने भी युगनिर्माण की सफलता के लिए दोनों का विवेकपूर्ण समन्वय बनाने की बात कही है । आज अविद्या की तो तमाम धाराएँ जाग्रत् और प्रतिष्ठित हो चुकी हैं, किन्तु विद्या के अभाव में वे बहक रही हैं । इसलिए जिस तरह अविद्या (लौकिक संसाधनों, तकनीकों) के सूत्र जन-जन तक पहुँच गये हैं । उसी तरह विद्या (आध्यात्मिक क्षमता और कुशलता) के सूत्र भी जन-जन तक पहुँचाना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है ।
विद्या विस्तार हो कैसे ?
विद्या के सैद्धांतिक सूत्र तो हमेशा से लगभग एक जैसे रहे हैं, किन्तु समयानुसार उन्हें जीवन-व्यवहार में लाने की जरूरत पड़ती है । उनका व्यावहारिक स्वरूप स्पष्ट न होने के कारण लोग उन्हें उचित, किन्तु अव्यावहारिक कहकर छोड़ देते हैं । अवतारी, ऋषि, सिद्ध, संत आदि उन्हें अपने जीवन में उतारकर दिखाते हैं तथा पुनः उन्हें जन जीवन में स्थापित करने का प्रवाह पैदा कर देते हैं । उनके परिजन उसमें उनका साथ देते हैं । पुरुषार्थ बहुतों का लगता है, शक्ति उन्हीं की कार्य करती है ।
इस समय में पू. गुरुदेव ने अपनी विरासत-वसीयत के रूप में अपने जीवन को प्रस्तुत किया है । जो परिजन उनके द्वारा छोड़ी गई जीवन साधना की विरासत को सँभालते हैं, उन्हीं को युगऋषि के शक्ति-अनुदानों की वसीयत प्राप्त हो जाती है । विद्या विस्तार के क्रम में भी ऐसा ही होना है ।
पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर जो उच्चस्तरीय ज्ञान जनहितार्थ प्रस्तुत किया है, उसके ही कारण विज्ञजनों ने उन्हें 'वेदमूर्ति' की पदवी से विभूषित किया । ज्ञान को प्रकट करने के दो माध्यम हैं-वाणी और लेखनी । वाणी का अपना प्रभाव है-किन्तु वह हवा में खो जाती है । सुनने वालों की स्मृति में उसका बहुत थोड़ा अंश रुक पाता है । विज्ञान द्वारा दी गई सुविधाओं से उसे रिकार्ड करके बार-बार सुनना भी संभव हो गया है । उन्हें सुनकर अनुयायी उन्हें लिपिबद्ध या प्रकाशित भी कर लेते हैं । इसलिए उसका टिकाऊ रूप कान से सुनने योग्य (ऑडियो) एवं आँख से देखकर समझने योग्य पुस्तकों के रूप में ही मिलता है ।
इसलिए विद्या विस्तार के क्रम में उनकी लेखनी या वाणी जन्य पुस्तकों को जन-जन तक अधिक से अधिक संख्या में पहुँचाने और उन्हें उनका स्वाध्याय करने के लिए संकल्पित करने-कराने का लक्ष्य रखा गया है । प्रत्येक यज्ञ या कथा आयोजक से यही कहा गया है कि आयोजन के संदर्भ में जो साधक, सहयोगी जुड़ें, उन तक युग साहित्य पहुँचाने के कार्य को प्राथमिकता दें और पूरी तत्परता से उसे अंजाम दें ।
विविध ढंग
पू. गुरुदेव ने इस संदर्भ में परिजनों को जो ढंग समझाए हैं, वे इस प्रकार हैं-
१. पत्रिकाओं के ग्राहक-पाठक बनाना -
(क) अखण्ड ज्योति -
इसे मिशन की मुख्य पत्रिका कहा जाता है । इसे हर परिजन, प्रबुद्ध एवं विचारशील तक पहुँचाने का र्निदेश है । (ख) युग निर्माण योजना-जिनके लिए अखण्ड ज्योति भारी पड़ती है, उन नर-नारियों तक यह पत्रिका पहुँचाना उचित है । (ग) प्रज्ञा अभियान पाक्षिक-इसे अपने प्रत्येक सक्रिय कार्यकर्त्ता एवं संगठित इकाई (मंडल आदि) तक पहुँचाना चाहिए । कहाँ क्या हो रहा है तथा कब क्या किया जाना है, इसकी संतुलित जानकारी इसी के माध्यम से पहुँचाई जाती है । प्रत्येक आयोजन के संयोजकों को इसके लिए एक निश्चित लक्ष्य बनाकर रखना चाहिए कि किस पत्रिका के न्यूनतम कितने नये ग्राहक बनाने हैं ।
२. पुस्तिका सैट स्थापना -
पूज्य गुरुदेव ने बहुत बड़ी संख्या में छोटी-बड़ी पुस्तकें लिखी हैं । वे तो शक्तिपीठों, प्रज्ञा संस्थानों एवं पुराने नैष्ठिक परिजनों के यहाँ स्थापित करके उनके माध्यम से उन्हें प्रसारित करने की व्यवस्था को अधिक प्रभावी बनाया जा रहा है । विद्या विस्तार यज्ञों के दौरान जुड़ने वाले श्रद्धालुओं, साधकों के घरों में उनकी श्रद्धा एवं सार्मथ्य के अनुसार छोटे-बड़े सैट स्थापित करने-कराने का सुनिश्चित लक्ष्य हर आयोजन के साथ रखा जाना है । इस संदर्भ में किए गये निर्धारण इस प्रकार हैं-
(क) छोटा गायत्री सैट -जो भी श्रद्धालु आयोजन के लिए साधना में भाग ले रहे हैं, उनमें प्रत्येक परिवार के पीछे कम से कम एक सैट इस साहित्य का स्थापित कराया जाय- पुस्तकों का विवरण (कुल मूल्य-२१ रु.)
१. गायत्री की दैनिक साधना-४ रु.
२. उपासना के दो चरण जप और ध्यान-४ रु.
३. आद्यशक्ति गायत्री की समर्थ साधना-४ रु.
४. गायत्री विषयक शंका समाधान-४ रु.
५. दो महान अवलम्बन -
(ख) छोटा क्रांतिधर्मी सैट-आयोजन के क्रम में जिन विचारशील समाजनिष्ठ लोगों का जुड़ाव हो, उनके यहाँ यह सैट स्थापित कराने का लक्ष्य रखा जाना चाहिए । युगऋषि के प्रौढ़तम विचारों की जानकारी इससे जन-जन में फैलेगी ।
पुस्तकों का विवरण (कुल मूल्य-३२ रु.)
१. सतयुग की वापसी-४ रु.
२. परिवर्तन के महान क्षण-४ रु.
३. मनःस्थिति बदले तो परिस्थिति बदले-४ रु.
४. जीवन देवता की साधना-आराधना-६ रु.
५. समस्यायें आज की, समाधान कल के-४ रु.
६. स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा-६ रु.
७. हमारे प्रमुख संस्थान-४ रु.
उक्त दोनों सेटों में से कोई एक अथवा दोनों उपयुक्त श्रद्धालुओं के यहाँ स्थापित कराये जा सकते हैं । प्रत्येक आयोजनकर्ता अपने क्षेत्र का जायजा लेकर लक्ष्य निश्चित करें तथा उस अनुसार सैट पहले से मँगाने की व्यवस्था निकटवर्ती साहित्य विस्तार पटल अथवा जिला संगठन के माध्यम से बना लें । विस्तार पटल से प्राप्त करने पर उन पर २५ प्रतिशत छूट मिल सकती है । यदि भावनाशीलों से २५ प्रतिशत अनुदान लेने की व्यवस्था बनाई जाये, तो ब्रह्मभोज साहित्य के क्रम में श्रद्धालुओं को वह सैट ५० प्रतिशत मूल्य पर दिये जा सकते हैं ।
(ग) नैष्ठिक परिजनों के यहाँ -पुराने नैष्ठिक परिजनों के यहाँ बड़े गायत्री सैट, पूरे क्रांतिधर्मी सैट तथा प्रज्ञापुराण (४ खण्ड) या प्रज्ञोपनिषद् (६ खण्ड) स्थापित करने तथा उनके स्वाध्याय का क्रम चलाया जाने का लक्ष्य भी विद्या विस्तार के अन्तर्गत रखना जरूरी है । यदि अपने अग्रदूतों के मन-मस्तिष्क में ही युगऋषि के विचार सूत्र जीवन्त रूप में न होंगे तो बात कैसे बनेगी?
अन्य उपक्रम
उक्त अनिवार्य क्रमों के लिए तो व्यवस्था बनानी ही चाहिए, यह तो न्यूनतम की बात हुई । प्राण-वानों को तो उससे आगे की बात भी सोचनी चाहिए । जैसे-१. झोला पुस्तकालय-प्रत्येक नये क्षेत्र में कुछ प्राणवान परिजनों को झोला पुस्तकालय चलाने के लिए संकल्पित कराया जाना चाहिए । पूज्य गुरुदेव ने झोला पुस्तकालय को 'अमृत कलश' की संज्ञा दी है । उसके माध्यम से अमृत तुल्य ज्ञान का सिंचन, करने वाले और पाने वाले दोनों को धन्य बनाता है ।
२. ज्ञान रथ-कस्बों या बड़े गाँवों में ज्ञानरथ चालू करने के सबल प्रयास किए जा सकते हैं । पूज्य गुरुदेव ने इसके लाभ स्पष्ट करते हुए लिखा है-''गोरस बेचन, हरि मिलन-एक पंथ दो काज ।'' इससे साहित्य विक्रय से होने वाला लाभ और ज्ञान विस्तार से होने वाला पुण्य, इन दोनों की प्राप्ति होती है ।
३. सम्पर्क से विस्तार-आयोजन क्षेत्रों में जन सम्पर्क एवं साहित्य विक्रय की प्रभावी व्यवस्था बनाकर समाज के विभिन्न वर्गों तक उनके अनुरूप पुस्तकें पहुँचाई जा सकती हैं । जैसे-
* बिल्कुल नये लोगों को प्रारंभिक परिचय देने या आम लोगों में वितरण के लिए-
१. इक्कीसवीं सदी का संविधान
* गुरुसत्ता का परिचय
१. संस्कृति पुरुष हमारे पूज्य गुरुदेव
२. हमारी वसीयत और विरासत
* गायत्री की न्यूनतम आवश्यक जानकारी
१. गायत्री की दैनिक साधना
२. गायत्री की सर्वोपयोगी सरल साधना
३. सबके लिए सुलभ उपासना साधना
४. युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण
* आत्मोत्कर्ष के लिए
१. मैं क्या हूँ,
२. तत्त्वदृष्टि से बंधनमुक्ति
३. अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है
४. गहना कर्मणोगति ।
* नियमित सत्संग के क्रम में
१. पूज्यवर की अमृतवाणी
२.प्रज्ञापुराण
३. क्रांतिधर्मी साहित्य (बीस पुस्तकें)
* व्यक्तिगत साधना संबंधी मार्गदर्शन
गायत्री महाविज्ञान भाग-१, भाग-२ एवं भाग-३
* प्रत्येक कार्यकर्त्ता के लिए पठनीय
१. लोक सेवियों को दिशाबोध
२. जीवन देवता की साधना-आराधना
* संगठकों के लिए पठनीय
संगठन की रीतिनीति
* प्रबुद्ध जनों के लिए
क्रांतिधर्मी साहित्य
* अन्य संस्थानों को मिशन का परिचय
१. छोटे फोल्डर एवं पत्रक
२. संजीवनी विद्या का विस्तार
* विद्यालय-विद्यार्थियों के लिए
१. शिक्षा और विद्या के समन्वय से संबंधित ५ पुस्तकें
२. विद्यार्थी जीवन की दिशाधारा
* बहिनों के लिए
महिला जागरण दिशा और धारा उनका दर्द-उनका उत्साह
पूज्य गुरुदेव के मन में यह दर्द हमेशा रहा कि जो लोग मुझे मानते है, वे मेरी बात क्यों नहीं मानते? उन्हें गुरु , ऋषि, विचारक माना है, तो उनके निर्देशों को भी तो मानें । जब र्निदेशों पर ध्यान ही नही दिया जायेगा, तो प्रगति की सीढ़ियों पर साधक चढेंगे कैसे? उनके निर्देश उनके साहित्य में हैं । उन पर बार-बार ध्यान लाया जाय, तो हर चरण पर पूरे किए जाने वाले अपने दायित्वों का बोध हो । इसलिए साहित्य के विस्तार और अध्ययन पर वे बहुत जोर देते रहे । अपने गुरु के निर्देश पाने और उनका निष्ठा पूर्वक पालन करने का जो उत्साह उनके अंदर उमड़ता रहा है । कुछ उसी प्रकार का उत्साह उनके निर्देशों के प्रति हमारा होना चाहिए । हमारे प्रयासों से उन्हें जितनी प्रसन्नता होगी, हमारे सौभाग्य का मार्ग भी उतना ही प्रशस्त होता चला जायेगा ।
ध्यान रखें, शीघ्रता करें
आयोजनों में जिस साहित्य की खपत जितनी मात्रा में करने का संकल्प उभरे, उतनी मात्रा में साहित्य पहले से मँगा लेने की व्यवस्था कर लेनी चाहिए, अन्यथा समय पर उसे प्राप्त करना कठिन होगा । इसे यो समझें-
इस श्रृंखला में २० हजार से अधिक आयोजन नये क्षेत्रों में होने वाले हैं । प्रत्येक आयोजन में यदि कम से कम पाँच-पाँच सैट भी स्थापित किए गये, तो भी एक लाख से अधिक सैटों की जरूरत पड़ेगी । यदि औसतन २० व्यक्तियों ने भी दीक्षा ली, तो कम से कम ४ लाख दीक्षा सैटों की जरूरत पड़ेगी । इतना साहित्य केन्द्र द्वारा एक साथ छापकर भेजना मुमकिन नहीं है । पहले से माँग आयेगी तो क्रमशः उसकी पूर्ति करते रहना संभव होगा । नवम्बर माह में जहाँ-जहाँ आयोजन हैं, वहाँ की माँग तो जल्दी से जल्दी शांतिकुंज के जोनल कार्यालय में फोन, फैक्स या ई-मेल से पहुँचा ही देना चाहिए ।