उल्लास जगाएँ, यो ही न बहाएँ
इस बात में कोई शक नहीं कि आयोजनों से जन उल्लास जागता है । उल्लास में यह विशेषता होती है कि वह जन जीवन में एक लहर पैदा कर देता है । उल्लास का एक प्रवाह बन जाता है, तो उसकी लपेट में उदासीन व्यक्ति भी आ जाता है । वास्तव में जन-उल्लास एक बड़ी शक्ति है और इसे जगा पाना है एक बड़ी कला ।
संयोग-सुयोग कहें, या गुरुकृपा कहें, गायत्री परिवार के हाथ यह कला लग गई है । छोटे-बड़े सभी प्रकार के महा आयोजनों में उस क्षेत्र के जन साधारण से लेकर विशिष्ट व्यक्तियों तक में एक उत्साह, उल्लास जाग उठता है । यह भी कह सकते हैं कि चूँकि यह योजना ईश्वरीय है, इसलिए प्रकृति का सहयोग, अनुग्रह सहज ही मिल जाता है । इसी के कारण जनउत्साह का ज्वार-सा आ जाता है । ऐसा होना भी चाहिए । युग निर्माण जैसे कार्य को सफलता पूर्वक आगे तभी बढ़ाया जा सकता है, जब उसके साथ जन-जन का जुड़ाव हो ।
स्वार्थ सिद्धि के लिए कोशिश करने वाले व्यापारी से लेकर लोकहित के समपिर्त संत तक यह जानते हैं कि उनके उद्देश्य की सिद्धि इसी में है कि अधिक से अधिक व्यक्ति उस दिशा में उत्साहित हो उठें । अस्तु जन उत्साह उभरना एक अच्छी सफलता है, किन्तु उस उत्साह से वाञ्छित प्रयोजन की सिद्धि होने लगे, यह उससे भी बड़ी सफलता है ।
यहाँ आकर अक्सर लोगों से चूक हो जाती है । वे लोग जन उल्लास जगाकर भी उसका समुचित लाभ उठा नहीं पाते । इसका कारण यही है कि प्राथमिक स्तर पर होने वाले छोटे लाभों में ही रम जाते हैं । इसलिए श्रेष्ठतर लाभों की दिशा में बढ़ते उनके कदम थम जाते हैं ।
छोटे लाभों पर अटक न जायें
आयोजनों के साथ अक्सर लोगों के मन में यह कामना होती है कि आयोजन को लोग सराहें और उसमें जो खर्च हुआ है वह पूरा हो जाय । हो सके तो अपने संगठन, संस्थान के लिए कुछ धन बच जाय । ऐसा सोचना बुरा नहीं है, यह तो होना ही चाहिए । जहाँ जन उल्लास जुड़ जाता है वहाँ इतना तो हो ही जाता है, लेकिन इसी को सफलता का पैमाना मान लेना अपने आपको छोटे लाभों में ही अटका लेना है ।
पूज्य गुरुदेव कहते रहे हैं कि हमारा आन्दोलन ईश्वरी योजना के अन्तगर्त है । इससे जुड़ने वालों को लोक सम्मान, दैवी अनुदान एवं आत्म संतोष के बड़े-चढ़े लाभ मिल सकते हैं । किन्तु यदि हमारे विचार-हमारे संकल्प ही छोटे स्तर पर रह जाएँ, तो हम ऊँचे स्तर के लाभ कैसे पाएँ? यदि हम अपने द्वारा किए जाने वाले प्रयासों तथा हो सकने वाले लाभों का समीक्षात्मक अध्ययन करें तो उच्चतर लाभों तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है ।
लोक सम्मान-
यह तो जन उल्लास के साथ जुड़ा ही रहता है । आयोजनों में पयाप्त संख्या में नर-नारी भाग लेते हैं । धन-साधनों की कमी नहीं पड़ती तथा आयोजकों की खूब प्रशंसा की जाती है । लेकिन यह सब थोड़े समय के लिए ही होता है । यह लाभ छोटे स्तर का ही कहा जाएगा । यह लाभ तो नाटक, नौटंकी वालों को भी मिल जाता है ।
यदि जन उल्लास को ऐसी दिशा दे दी जाय कि उससे हर व्यक्ति परिवार एवं समाज को अपेक्षाकृत स्थाई लाभ हो तो आयोजकों को भी स्थाई लोक सम्मान के उच्चतर लाभ मिल सकते हैं ।
दैवी अनुग्रह-
जो कार्यक्रम दैवी योजना के अन्तर्गत हो रहे हैं, उनके साथ दैवी अनुग्रह तो जुड़ा ही रहेगा । सभी आयोजक यह अनुभव करते हैं कि कोई दैवी प्रवाह हमारी सहायता कर जाते हैं, लेकिन हम इस दैवी अनुग्रह का मूल्यांकन भी बड़े हलके स्तर का करते हैं । जन समर्थन और जन सहयोग पर्याप्त मात्रा में मिल जाये, कोई दुर्घटना न घटे, बस इतने भर से हम दैवी अनुग्रह की सार्थकता मान लेते हैं ।
दैवी योजना युग परिवर्तन की है । व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण आदि उसके विभिन्न चरण हैं । मनुष्य में देवत्व का उदय उसकी अनिवार्य शर्त र्है... । किन्तु इसके लिए हम न तो संकल्पित होते हैं और न उस स्तर के दैवी अनुग्रह की अपेक्षा रखते हैं । ऐसे में यदि हम दैवी अनुग्रह के हलके स्तर पर ही अटक जाते हैं तो शिकायत किससे करें ।
आत्म संतोष-
इसकी तो सही कल्पना भी हममें से शायद कुछ परिजन करते हैं । लौकिक प्रयासों से होने वाली सफलता से जो प्रतिष्ठा हमें मिलती है, उसी को हम आत्म संतोष मान लेते हैं । वास्तव में देखा जाय तो यह तो हमारी छिपी हुई लोकेषणा या अहंता की ही तुष्टि होती है । उसे ही हम आत्म संतोष मान लेते हैं ।
आत्मसंतोष बहुत बड़ी और बेशकीमती विभूति है । वह तो तभी उभरता है, जब आत्म चेतना स्वयं को विराट चेतना या परमात्म चेतना के निकट पहुँचता हुआ अनुभव करती है । इसके चरण निर्धारित हैं । युगऋषि ने उन्हें बहुत स्पष्ट एवं सुलभ रूप भी दिया है । वे कहते रहे हैं -
आत्मा को जब आत्म समीक्षा, आत्मशोधन, आत्म निर्माण एवं आत्म विकास की सीढ़ियों पर क्रमशः बढ़ाया-चढ़ाया जाता है तो पहले वह क्रमशः 'महत्' और 'परम' की निकटता अनुभव करती है । तभी आत्म संतोष उभरता है । जब आत्मा संतुष्ट होती है तो अपने अन्दर के दिव्य गुणों और आसाधारण क्षमताओं के पिटारे खोल देती है, जीवन धन्य हो जाता है । संसार के सब धन, पद, प्रतिष्ठा उसके सामने छोटे-फीके पड़ जाते हैं ।
लेकिन हम लोक सम्मान और दैव अनुग्रह की छोटी संकीर्ण परिधियों में ही स्वयं को कैद किये रहेगे तो आत्मा की दिव्यता के खुलने का बानक ही कैसे बनेगा?
तो संकल्प करें कि हमें आयोजन ढर्रे के नहीं करने हैं, उन्हें 'युग साधना' स्तर का बनाना है । उस आधार पर उच्च स्तरीय लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह पाना है । युगऋषि के तेजस्वी पुत्र या शिष्य कहलाने का आत्म संतोष पाना है । अपने अन्दर आत्मा के दिव्य भण्डार को उजागर करके लोक-परलोक दोनों को सफल बनाना है । तो क्या करें?
जो जुड़े, जुड़ा रहे, बढ़ता रहे
युगऋषि के निदेर्शों को सतत ध्यान में रखने तथा उन्हीं कसौटियों पर अपने को कसते रहने से बात बनेगी । दुनिया की वाहवाही या कुछ अधिक सुविधा-सामग्री पा लेने को ही सफलता मान लेने से तो अटकन-भटकन बनी ही रहेगी । गुरुवर कहते रहे हैं कि लोग तुम्हारी तारीफ करें, यह अच्छी बात है, इससे कार्य करने में सुगमता होगी । किन्तु तुम्हें इसकी कामना नहीं करनी चाहिए तथा उसी को अपनी सफलता का पैमाना नहीं मान लेना चाहिए ।
गुरुवर ने कहा है कि युगनिर्माण का संदेश लेकर हमें हर घर, हर व्यक्ति तक पहुँचाना है । जहाँ थोड़ी-सी आत्म जागृति दिखे, उसे स्थाई रूप से युगशक्ति के साथ, सृजन प्रयोजन के साथ जोड़ देना है । यज्ञायोजन में जो प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से श्रद्धा-सहयोग दे रहे हैं, उनमें निश्चित रूप से थोड़ी-बहुत तो आत्म जागृति है ही । उन्हें जोड़े रखने के लिए, क्रमशः आगे बढ़ाते रहने के लिए अपना पूरा कौशल और पुरुषार्थ लगाना होता है । युगशिल्पियों, सृजन सैनिकों की यही सवर्श्रेष्ठ साधना है । जो इस साधना में संकल्पित होकर जुटेंगे, इस हेतु तप की कसौटी पर स्वयं को कसेंगे, वे निश्चित रूप से उच्च स्तरीय लाभों के भागीदार, सुपात्र बनेंगे ।
यह यज्ञायोजन 'विद्या विस्तार आयोजन' कहे गये हैं । चूँकि यह दैवी योजना है, इसकी प्रत्येक अधिकृत घोषणा के साथ दिव्य चेतन प्रवाह जुड़े रहते हैं । जैसे बादल वनों के प्रभाव से बरस पड़ते हैं, उसी प्रकार दिव्य चेतना के अनुदान सत्संकल्पों एवं सत्पुरुषार्थो के प्रभाव से बरसने लगते हैं ।
कहा गया है 'सा विद्या या विमुक्तये ।' विद्या वह जो अनगढ़ प्रवृत्तियों के बंधनों से मुक्त करे दे । महाविद्या का विस्तार हो रहा है, उसके अनुग्रह से विश्व विनाश के कुचक्र से मुक्त होकर विकास के, उज्ज्वल भविष्य के पथ पर बढ़ेगा । जब इतने बड़े प्रयोग सफल होने हैं तो हम क्यों वंचित रहें ? हम छोटे लाभों के संकीर्ण दायरे में क्यों बँधे रह जाएँ । माता-महाविद्या का आशीर्वाद प्राप्त करें और अवरोधों से मुक्ति पाकर अग्रदूतों के गौरवमय मार्ग पर तेज गति से चल पड़ें ।
योगी बनें, वियोगी नहीं आशीर्वाद
आयोजन के साथ जो भी श्रद्धा-उत्साह के साथ जुड़ें, हम उन्हें ऋषि के प्रयोजन से जोड़ दें तो हम 'योगी' कहलायेंगे । यदि जो आज आये वे कल बिछुड़ गये, तो हम योगी (जोड़ने वाले) नहीं, (वियोगी) बिछोह करने वाले कहलाएँगे । तो महाविद्या से यह योग विद्या प्राप्त करें और उसका श्रेष्ठ सदुपयोग कर दिखाएँ । ऐसा कुछ तो हम कर ही सकते हैं-
-जो नर-नारी यज्ञ के लिए श्रद्धापूवर्क जप, मंत्र लेखन या चालीसा पाठ कर रहे हैं, वे स्थाई रूप से गायत्री उपासना से जुड़ जायें । अभी वे सामयिक उपासक रहे, आगे स्थाई उपासक बन जायें ।
-उनमें से जो गायत्री की मंत्र दीक्षा ले लें उन्हें गुरुभाई मानकर उनको युगसाधक के स्तर तक विकसित करना अपना पवित्र कर्तव्य मानें । पुराने साधक उनके साथ नियमित संपर्क बनाने, उन्हें आगे बढ़ाते रहने के लिए जिम्मेदारी उठाएँ, इसके लिए औरों में भी उत्साह जगाएँ ।
-जो नर-नारी पत्रिकाओं के ग्राहक बनें और जिनके यहाँ युग साहित्य स्थापित कराया जाये, उन्हें स्वाध्यायी बनाने के लिए व्यक्तिगत जिम्मेदारियाँ सौंपी जायें, उन्हें तप मानकर निभाया जाय ।
-जिन्होंने यज्ञ के लिए अंशदान, समयदान, किया है वे ईश्वरीय योजना में सामयिक रूप से साझेदार बने हैं । उन्हें स्थाई रूप से साझेदार बनाया जाये । प्रेरणा, प्रोत्साहन, सहयोग देकर उनके श्रेष्ठ संस्कारों को जाग्रत् किया जाय ।
-समयदानियों को प्रशिक्षण की सुविधाएँ प्रदान की जायें तथा अंशदानियों को उसी अंश से पत्रिकाएँ मँगाने, साहित्य खरीदने के अलावा उनके इच्छित प्रयोजनों में लगाने की व्यवस्था बनाई जाय ।
-यदि विद्या विस्तार के क्रम में हमारे आयोजकों ने अपने अंदर लोगों को अपना बनाने की विद्या विकसित कर ली है तो समझो आत्म कल्याण और जन कल्याण, आत्म निर्माण और युग निर्माण के उभय पक्षीय लाभों का मार्ग प्रशस्त हो गया । फिर लोक सम्मान, प्रतिष्ठा, दैवी अनुग्रह तथा आत्म संतोष के उच्चस्तरीय लाभ हमारी झोली में निश्चित रूप से आने ही वाले हैं ।
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