मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

साधना का सत्य

मनुष्य हर तरफ से शास्त्र और शब्दों से घिरा हैं, लेकिन संसार के सारे शास्त्र एवं शब्द मिलकर भी साधना के बिना अर्थहीन हैं। शास्त्रों और शब्दों से सत्य के बारे में तो जाना जा सकता हैं, पर इसे पाया नहीं जा सकता हैं। सत्य की अनुभूति का मार्ग तो केवल साधना हैं। शब्द से सत्ता नहीं आती हैं। इसका द्वार तो शून्य हैं। शब्द से नि:शब्द में छलाँग लगाने का साहस ही साधना हैं।

विचारों से हमेशा दूसरों को जाना जाता हैं। इससे `स्व´ का ज्ञान नहीं होता, क्योंकि `स्व´ सभी विचारों से परे और पूर्ण हैं। `स्व´ के सत्य को अनुभव करके ही हम परम सत्ता-परमात्मा से जुड़ते हैं। इस परम भावदशा की अनुभूति विचारों की उलझन और उधेड़-बुन में नहीं निर्विचार में होती हैं। जहाँ विचारों की सत्ता नहीं हैं, जहाँ शास्त्र और शब्द की पहुँच नहीं हैं, वहीं अपने सत्यस्वरूप का बोध होता हैं, ब्रह्मचेतना की अनुभूति होती हैं।
इस परम भावदशा के पहले सामान्य जीवनक्रम में चेतना के दो रूप प्रकट होते हैं, 1. बाह्य मुर्छित -अंत:मुर्छित, 2. बाह्य जाग्रत-अंत: जाग्रत। इनमें से पहला रूप मूर्च्छा-अचेतना का हैं। यह जड़ता का हैं। यहीं विचार की स्थिति हैं। दूसरा रूप अर्द्धमूर्च्छा का हैं, अर्द्ध चेतना हैं। यह जड़ और चेतन के बीच की स्थिति हैं। यहीं विचार तरंगित होते हैं। चेतना की इस स्थिति में जो साधना करने का साहस करते हैं, उनके लिए साधना के सत्य के रूप में चेतना का तीसरा रूप प्रकट होता हैं। यह तीसरा रूप अमूर्च्छा -पूर्ण चेतना का हैं। यह पूर्ण चैतन्य हैं, विचारों से परे हैं।
सत्य की इस अनुभूति के लिए मात्र विचारों का अभाव भर काफी नहीं हैं, क्योंकि विचारों का अभाव तो नशे और इंद्रिय भोगों की चरम दशा में भी हो जाता हैं, लेकिन यहाँ जड़ता के सिवा कुछ भी नहीं हैं। यह स्थिति मूर्च्छा की हैं, जो केवल पलायन हैं, उपलब्धि नहीं। सत्य को पाने के लिए तो साधना करनी होती हैं। सत्य की साधना से ही साधन का सत्य प्रकट होता हैं, यह स्थिति ही समाधि हैं।
अखण्ड ज्योति सितम्बर 2003

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