सोमवार, 19 अक्टूबर 2009

युगदेवता के नवसृजन अनुदानों से कोई भी वंचित न रह जाये

युग-वसंत अपने दिव्य अनुदानों से जन-जन की झोली भर देने के लिए हुलस रहा है । अधिकांश लोग इस अनुपम श्रेय-सौभाग्य के अवसरों का लाभ उठाने के प्रति जागरूक नहीं हैं । जिन्हें इस सत्य का अहसास है, जो इस दिशा में कुछ कर रहे हैं, उन्हें चाहिए कि इस दिव्य अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाने के लिए स्वयं भी प्रयासरत रहें तथा किसी प्रकार सम्पर्क में आने वाले श्रद्धालुजनों को भी नवसृजन यज्ञ के न्यूनतम कार्यक्रमों से जोड़ें । पू.गुरुदेव ने इस संदर्भ में सन् १९८२ में परिजनों से जो अपील की थी, उसे इस आलेख में सामयिक टिप्पणियों के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है । नैष्ठिक परिजन ध्यान से पढें, समझें, स्वयं भी लाभ उठाएँ तथा विद्या विस्तार यज्ञों, ज्ञानयज्ञों के माध्यम से जुड़ने वालों को भी इसके लिए प्रेरित करें । 

न्यूनतम सप्तसूत्र 
जो नितांत व्यस्त एवं विवश हैं, जो जनसम्पर्क के लिए नहीं जा सकते, सार्वजनिक सेवा का अवसर जिन्हें उपलब्ध नहीं है, उनके लिए घर रहकर भी आत्म निर्माण और परिवार निर्माण की सप्तसूत्री योजना प्रस्तुत की गयी है और आशा की गयी है कि इस सरल कार्यक्रम में से जितना जिससे बने, उतना तो व्यवहार में उतारें ही । व्यस्त प्रज्ञा परिजनों की सप्तसूत्री योजना इस प्रकार है - 

(१)उपासना में निष्ठा एवं नियमितता का अनुपात बढ़ाया जाय । गायत्री मंत्र का जप एवं प्रकाशपुंज सविता का ध्यान न्यूनतम पंद्रह मिनट तो किया ही जाय । घर के सदस्यों को भी आद्यशक्ति के प्रतीक के सम्मुख तीन मिनट नमन-वन्दन के लिए सहमत किया जाय । घर में आस्तिकता, धार्मिकता का वातावरण बनाया जाय । सामूहिक प्रार्थना, आरती, सहगान का क्रम चलाया जाय । 

गुरुवर का निर्देश है कि व्यक्तिगत उपासना भले ही न्यूनतम १५ मिनट की जाय, किन्तु उसमें निष्ठा एवं नियमितता का अनुपात बढ़ाया जाय । 

निष्ठा का अर्थ है श्रद्धा के अनुरूप कर्म तथा कर्म के अनुरूप श्रद्धा का जीवन संयोग बनाया जाय । ईश्वर के दिव्य प्रकाश, दिव्य प्रवाहों के प्रति श्रद्धा बढ़ाई जाय तथा जप और ध्यान के माध्यम से उसे अपने जीवन में आत्मसात् करने के लिए विकल होकर प्रयास किया जाय । 

नियमितता से ही स्थिर लाभ मिलते हैं । पुष्टिकारक व्यायाम या आहार थोड़ा भी किया जाय, किन्तु यदि वह नियमित है, तो उसके बड़े चमत्कारी परिणाम सामने आते हैं । नियमितता से कर्म विशेष में रस भी बढ़ने लगता है और कौशल भी । फिर थोड़े समय में भी बहुत लाभ प्राप्त होने लगते हैं । अन्यथा अनमने मन से लम्बे समय तक किए गये यांत्रिक जपों के लाभ भी संदिग्ध ही रह जाते हैं । 

व्यक्तिगत उपासना के साथ परिवार के सदस्यों को भी उपासना से जोड़ने तथा घर में आस्तिकता का वातावरण बनाने के लिए भी उन्होंने अनुरोध किया है । सूत्र सुगम-छोटे दिखने पर भी बड़े प्रभावी हैं । ठीक से अपनाने पर इनसे परिवार में सहयोग, सुख, शांति का संचार होने लगता है । 

जीवन साधना 
(२)जीवन साधना के लिए एकांत चिन्तन-मनन का कोई समय निर्धारित रखा जाय । आत्म-समीक्षा, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण, आत्म-विकास के लिए आज की स्थिति में जितना सम्भव हो, उसके लिए कदम बढ़ाया जाय । इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम का अभ्यास निरन्तर जारी रखा जाय । 

परमात्मा ने मनुष्य के अन्दर बीज रूप में दैवी सम्पदा के अथाह भंडार भर रखे हैं । उन्हें जाग्रत् करने, बिखरने न देने तथा सत्प्रयोजनों में संकल्प पूर्वक लगाते रहने की साधना की जाय, तो हर साधक के अन्दर महामानव जाग्रत् होना कठिन नहीं है । उपासना से प्राप्त ऊर्जा-प्रवाह आत्मजागरण की दिशा में प्रयुक्त करने की बात अधिकांश साधक भूलने लगते हैं । इस दिशा में स्वयं जागरूक रहने तथा साथियों को प्रेरणा-प्रोत्साहन देने से इसका समुचित लाभ मिल सकता है । एकांत चिंतन करके अपना मूल्यांकन करते रहने तथा प्रगति के अगले चरण निर्धारित करते रहने को ही मनन-चिंतन कहा गया है । अध्ययन या सत्संग से प्राप्त सूत्रों को मनन-चिंतन द्वारा ही पचाया, आत्मसात् किया जाता है । 

परिवार के पंचशील 
(३)परिवार को सुसंस्कारी, स्वावलम्बी बनाने का ध्यान भी उनके निर्वाह एवं भविष्य की तरह ही रखा जाय । घर के लोगों को साथ लेकर श्रमशीलता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, शिष्टता, उदार सहकार के पारिवारिक पंचशीलों का अभ्यास कराया जाय । 

युगऋषि का निर्देश है कि परिवार के पालन-पोषण की तरह ही उनके अन्दर सुसंस्कारों, स्वावलम्बन की क्षमताओं को भी जाग्रत् करने की जिम्मेदारी हर समझदार-सद्गृहस्थ को निभानी चाहिए । उससे परिवार में सुख-शांति का वातावरण तो बनता ही है, परिवार महामानवों को गढ़ने वाली टकसाल-प्रयोगशाला का भी रूप ले लेता है । इससे आज के जीवन में अनचाहे ढंग से घुस पड़ने वाले तनावों-अवसादों (टेन्शन, डिप्रेशन) से भी छुटकारा मिल जाता है । 

स्वाध्याय की संजीवनी 
(४)घर के हर सदस्य को स्वाध्याय का चस्का लगाया जाय । छोटा घरेलू पुस्तकालय बनाया जाय, जिसमें प्रचार साहित्य पहुँचता रहे । हर सदस्य अबकी अपेक्षा कल अधिक शिक्षित बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाय और उसकी लिस्ट बनाई जाय । नित्य कथा-संस्मरण सुनाने की ज्ञानगोष्ठी हर घर में चले । 

विद्या विस्तार वर्ष में इस संदर्भ में बहुत कुछ लिखा जा चुका है । विद्या विस्तार साहित्य सैटों की स्थापना के साथ उनके स्वाध्याय का क्रम भी चलाया जाना जरूरी है । युगऋषि ने युग रोगों से बचने की अमोघ औषधि के रूप में तेजस्वी विचार प्रस्तुत किए हैं । जो सेवन करेंगे, उन्हें अवश्य लाभ मिलेगा । इसलिए उनका आग्रह है कि इसका अभ्यास ही नहीं किया जाय, इसका चस्का भी लगना चाहिए । जिसका चस्का लग जाता है, उसे पाने-करने के लिए व्यक्ति तड़प उठता है । स्वाध्याय की संजीवनी का भी चस्का लगना चाहिए । 

विवेक को फलित होने दें 
(५)हरीतिमा संवर्धन के लिए आँगन में तुलसी का थाँवला देवालय की तरह प्रतिष्ठित किया जाय । उसकी अर्ध्यजल, अगरबत्ती, परिक्रमा जैसी सरल पूजा करली जाय । घरवाड़ी, शाकवाटिका, आँगनवाड़ी, छप्परवाड़ी, छतवाड़ी लगानेका प्रबन्ध किया जाय । 

(६)अवांछनीयता उन्मूलन के लिये आवश्यक साहस जगाया जाय । अभ्यस्त मूढ़ मान्यताओं के लिए एवं अनैतिक अवांछनीयताओं को बुहारने-हटाने का विवेकयुक्त मनोबल उभारा जाय । खर्चीली शादियाँ, जाति-पाँति के आधार पर ऊँच-नीच, पर्दाप्रथा, भिक्षा-व्यवसाय, मृतकभोज जैसी कुरीतियों को, नशेबाजी, फैशन, आलस्य, अपव्ययिता, अशिष्टता जैसे कुप्रचलनों को अपने घर से हटाया जाय । जहाँ इनका प्रचलन हो, वहाँ असहयोग रखा जाय ।

युगऋषि सदैव कहते रहे हैं कि सत्प्रवृत्तियों को अपनाने और दुष्प्रवृत्तियों को त्यागने में ही विवेक की सार्थकता है । अपने विवेक को पैना-प्रभावशाली बनाने के लिए उन्होंने हरीतिमा संवर्धन के लिए थोड़े ही सही, सार्थक प्रयासों तथा कुरीतियों-दुर्व्यसनों को छोड़ने के लिए छोटे ही सही किन्तु साहसिक कदम बढ़ाने की अपील की है । इन्हें व्यक्तिगत-पारिवारिक स्तर पर तो शुरू कर ही देना चाहिए । 

आलोक वितरण
(७)सम्पर्क क्षेत्र में आलोक वितरण के लिए सहज ही मिलने-जुलने वालों को अपना प्रज्ञा साहित्य पढ़ने देने, वापस लेने का सिलसिला चलाया जाय । अपने कमरों में आदर्श वाक्यों का सैट टँगा रखा जाय । 

विचार दैवी सम्पदा के अन्तर्गत आते हैं । वितरण से यह सम्पदा बढ़ती है । इसलिए सेवाभाव से न सही, अपने लाभ की दृष्टि से सहज क्रम में सदि्वचारों का आलोक फैलाने का प्रयास किया जाना चाहिए । जो स्नेही लोग घर में आते-जाते हैं, उनसे स्वाध्याय की चर्चा करने और आग्रह पूर्वक पुस्तकें पढ़ने का आग्रह करने का क्रम कोई भी सद्गृहस्थ सहज ही चला सकता है । इसमें संकोच नहीं करना चाहिए । 

सद्वाक्यों को घर में स्टीकरों या हैंगरों या किसी भी रूप में स्थापित करना बहुत लाभप्रद सिद्ध होता है । परिवारीजनों एवं आने-जाने वालों के मनों पर इनका प्रभाव जाने-अनजाने में पड़ता ही रहता है । जिन घरों में विद्या विस्तार सैट स्थापित किए गये हैं, उनके यहाँ क्रमशः सद्वाक्य भी स्थापित करने-कराने का क्रम बनाया जाना चाहिए । नैष्ठिक परिजन इस दिशा में भी न्यूनतम लक्ष्य बनाकर कार्य करें तो अच्छे परिणाम उभर सकते हैं । 

सद्वाक्यों के स्टीकर, हैंगर कई तरह के बनाए जा चुके हैं । साहित्य विस्तार पटलों, शक्तिपीठों के माध्यम से मंगाकर इन्हें स्थापित करने की योजना बनाई जानी चाहिए । 

सार्थक दक्षिणा एवं दान 
गायत्री यज्ञों के अवसर पर कई भावनाशील देवदक्षिणा की श्रद्धांजलि प्रस्तुत करते हैं । हरिद्वार आने पर कई व्यक्ति गुरुदीक्षा, मंत्रदीक्षा की बात कहते हैं । उन सभी उदारमना लोगों से कहा गया है कि वे कुछ पैसे देने मात्र को गुरुदक्षिणा, देवदक्षिणा न समझें, वरन् यह विचार करें कि महाकाल की याचनाओं में से किन्हें किस मात्रा में किस प्रकार पूरी करने के लिये अपनी श्रद्धांजलि प्रस्तुत करेंगे । इसी पराक्रम-पुरुषार्थ के रूप में प्रकट होने वाली भावश्रद्धा ही सार्थक मानी जाती है । हमारे मनोयोग एवं समयदान का महत्वपूर्ण अंश उपरोक्त कार्यों में लगे तो उसे उच्चस्तरीय दक्षिणा समझना चाहिए । 

यज्ञों, संस्कारों में देवदक्षिणा संकल्प तो कराये जाते हैं, किन्तु उन संकल्पों का अनुपालन कराने, संकल्प कर्त्ताओं को प्रेरणा, प्रोत्साहन, सहयोग देने का तंत्र शायद ही कहीं बन पाता है । इसलिए संकल्पों को चरितार्थ करने-कराने का क्रम लड़खड़ाने लगता है । अब ऐसा न होने दिया जाय । देव शक्तियों या गुरुसत्ता के सामने किये-कराये गये संकल्पों को पूरी तत्परता से पूरा करने-कराने का तंत्र भी विकसित किया जाना चाहिए । 

दक्षिणा के साथ दान की शर्त भी जुड़ी हुई है । युग देवता ने हर जाग्रत् आत्मा से देवदक्षिणा की याचना की है । दक्षिणा का उल्लेख ऊपर हो चुका है । दान में समयदान, श्रमदान, अंशदान को नवसृजन जैसे महान प्रयोजन में लगाने की इन दिनों महती आवश्यकता है । अपने समय का एक अंश हम सब नियमित रूप से नवसृजन में लगायें और उसका विधिवत् संकल्प करें । इसी प्रकार अपनी आजीविका का एक महत्वपूर्ण अंश मासिक रूप से युग परिवर्तन के पुण्य प्रयोजन के लिए निश्चित रूप से निकालते रहने का निश्चय करें । यदाकदा कुछ दान-दक्षिणा देने से काम चलने वाला नहीं है । युग सृजेता जाग्रत् आत्माओं को नियमित समयदान, अंशदान का संकल्प श्रद्धापूर्वक करना चाहिए और उसका निष्ठापूर्वक निर्वाह करना चाहिए । 

समयदान और अंशदान काफी परिजन करते तो हैं, लेकिन उनमें नियमितता की कमी होती है । यदि समयदान-अंशदान के संकल्पों के साथ नये-पुराने परिजन न्याय कर सकें, तो उनके व्यक्तिगत जीवन में तो दिव्यता का प्रतिशत बढ़े ही, दैवी संपदा का लाभ भी मिले और नवसृजन अभियान भी नयी ऊँचाइयाँ छूने लगे । 

विद्या विस्तार यज्ञों-ज्ञानयज्ञों के माध्यम से जो परिजन जुड़े हैं, उन्हें तो इन ऋषि निर्दिष्ट सूत्रों से जोड़ना ही चाहिए । युग चेतना के दिव्य अनुदानों के असाधारण लाभ उन्हें इन्हीं सूत्रों के अनुपालन से मिलेंगे । यदि समीक्षा की जाय तो बड़ी संख्या में पुराने परिजन भी ऐसे मिलेंगे, जो इन सूत्रों के प्रति उदासीन हैं या केवल चिह्न पूजा करके इतिश्री कर लेते हैं । यदि वे भी इस भूल का सुधार कर लें तो उनके अंदर नवचेतना का नया संचार हो सकता है । युगऋषि की साक्षी में नैष्ठिक प्रयास करें और अनुपम लाभ कमाएँ । 

कोई टिप्पणी नहीं:

LinkWithin

Blog Widget by LinkWithin