स्वाधीनता प्राप्ति की घड़ी में भारतमाता की आँखे छलक पड़ी थी, इस सच की अनुभूति उस समय सभी ने की थी, परन्तु इस तथ्य को कम ही लोग अनुभव कर पाये थे कि भारत माँ की एक आँख में खुशी के आँसू छलक रहे थे, जबकि उसकी दूसरी आँख दु:ख के आँसुओं से डबडबायी हुयी थी। खुशी स्वाधीनता की थी और दु:ख विभाजन का था। अपनी ही सन्तानों ने माता के अस्तित्व एवं अस्मिता के हिस्से को काट कर अलग कर दिया था। विभाजन की यह पीड़ा बड़ी दारूण थी और यातना बड़ी असहनीय। फिर भी उम्मीद थी की स्वाधीन देशवासी सम्भवत: समझदार हो जाएँगे और अपनी माँ को अब यह दरद नहीं देंगे।
परंतु दुर्देव और दुर्भाग्य ! स्वाधीनताप्राप्ति के वर्ष पर वर्ष बीतते गये और विभाजन के नये-नये रूप सामने आते गये। भूमि तो नहीं बँटी, पर भावनाएँ बटती गईं। भूगोल तो वही रहा, परन्तु उसमें खिंची संवेदनाओं की लकीरें मिटती गईं। संवेदनाओं की सरिता को सोखने वाले, इसे दूषित-कलुषित करने वाले विभाजनों के कितने ही रूप सामने आते गये। विभाजन धर्म के नाम पर, विभाजन जाति के नाम पर, विभाजन भाषा के नाम पर, विभाजन सांप्रदायिकता और क्षेत्रियता के नाम पर। स्वाधीनता की हर वर्षगाँठ पर भारतमाता की आँखे छलकती तो जरूर हैं, परन्तु यह अनुभूति गिने-चुने लोग ही कर पाते हैं कि अब उसकी दोनो आँखों में खुशी के आँसू नहीं, दु:ख के आँसू डबडबा रहे हैं। लेकिन ये आँसू खून के आँसू हैं। इनमें जातियता के संघर्ष का खून हैं। अब उससे सही नहीं जा रही इन नित नये विभाजनों की पीड़ा।
पता नहीं उसकी अपनी संतानों में से कौन और कितने माँ की इस पीड़ा की अनुभूति कर पाएँगे ! क्योंकि यह अनुभूति तो राष्ट्रीयता की अनुभूति से जुड़ी हुई हैं। यह अनुभूति प्रत्येक भारतवासी का राष्ट्रीय कर्तव्य हैं। उसे अपनी इसी कर्तव्यनिष्ठा में अपने धर्म, जाति एवं क्षेत्रियता को विलीन कर देना चाहिए।
अखण्ड ज्योति अगस्त २००७
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