सोमवार, 12 दिसंबर 2011

अलबानिया की रानी एलिजाबेथ एक दिन समुद्री यात्रा पर जा रही थी। तूफान आया और जहाज बुरी तरह डगमगाने लगा। मल्लाहों का धीरज टूट गया और वे डूबने की आशंका व्यक्त करने लगे। रानी ने गंभीर मुद्रा में मल्लाहों से कहा-‘‘अलबानिया के राजपरिवार का कोई सदस्य अभी तक जलयान की दुर्घटना में डूबा नहीं हैं। मैं जब तक इस पर सवार हूँ, तब तक तुममें से किसी को भी डूबने की आशंका करने की जरूरत नहीं।’’ 

मल्लाह निश्चिन्त होकर डाँड चलाते रहे। तूफान ठंढ़ा हुआ और जहाज शांतिपूर्वक निश्चित स्थान पर पहुँच गया। यदि उन्हें घबराहट रही होती तो अस्त-व्यस्त काम करते और जहाज को डुबो बैठते।

कर्तव्य का पालन...


कोर्टमार्शल के सम्मुख तात्या टोपे को उपस्थित करने के बाद अँगरेज न्यायाधीशें ने कहा-‘‘यदि अपने बचाव के लिए तुम्हें कुछ कहना है तो कह सकते हो।’’

‘‘मैंने ब्रिटिश शासन से टक्कर ली हैं।’’

तात्या ने स्वाभिमानपूर्वक कहा-‘‘मैं जानता हूँ कि इसके बदले मुझे मृत्युदंड़ प्राप्त होगा। मैं केवल ईश्वरीय न्याय और उसके न्यायालय में विश्वास करता हूँ, इसलिए अपने बचाव के पक्ष में कुछ नहीं कहना चाहता।’’

नियमानुसार उन्हें फाँसी ही दी गई। वधस्थल पर ले जाते समय उनके हाथ-पैर बाँधे जाने लगे तो वे बोले-‘‘तुम मेरे हाथ-पैर बाँधने का कष्ट क्यों करते हो, लाओ, फाँसी का फंदा मैं स्वयं अपने हाथों से पहन लेता हूँ।’’

कर्तव्य का पालन करते हुए मृत्यु भी आ जाए तो श्रेष्ठ है।

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मेहनत का फल...

‘‘अरी मूर्ख गौरैया! तू दिन भर ऐसे ही तिनके चुनने में लगी रहेगी क्या ? छिः-छिः तू भी अजीब है, न कुछ मौज, न मस्ती-बस, वही दिन-रात परिश्रम, परिश्रम।’’

कौए की विद्रूप वाणी सुनकर भी गौरैया चुपचाप तिनके चुनने ओर घोंसला बनाने में लगी रही। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। कुछ दिन ही बीते थे, वर्षा ऋतु आ गई। एक दिन बादल घुमड़े और जोर का पानी बरसने लगा। गौरैया अपने बच्चों सहित घोंसले में छिपी रही और कौआ इधर-उधर मारा-मारा फिरता रहा। शाम को वह गौरैया के पास जाकर बोला-‘‘बहन ! सचमुच मुझसे भूल हुई जो तुझे बुरा-भला कहा। तुझे इस प्रकार सुरक्षित बैठे देखकर अब मुझे मालूम हुआ कि मेहनत का फल सदा मीठा होता है।’’

अंधविश्वास ...

एक युवक को नौकरी का इंटरव्यू देने के लिए 24 तारीख को बुलाया गया। युवक 22 तारीख को चलने को हुआ तो घर वालों ने कहा आज शनिवार है, अच्छा दिन नहीं, कल जाना। दूसरे दिन पंडि़त जी बोले रवि, शुक्र को पश्चिम की यात्रा वर्जित है, सो वह दिन भी गया। 23 तारीख को ‘योगिनी बाएँ पड़ेगी’ कहकर ज्योतिषी ने चक्कर में ड़ाल दिया। 24 को कपड़े पहनकर चलने को हुआ कि एक बच्ची ने छ़ीक दिया, लड़की को जुकाम था, पर घर वालों ने नहीं जाने दिया। 25 को घर से बाहर निकलते ही बिल्ली रास्ता काट गई। अपशकुन टालने के लिए, जब तक लड़के को रोककर रखा गया, रेलगाड़ी निकल गई। युवक 26 तारीख को आफिस पहुँचा तो दरवाजे पर लिखा पाया- "नो वेकेन्सी" अब कोई स्थान खाली नहीं।

अंधविश्वासों के कारण अक्सर बड़ी हानियाँ उठानी पड़ती हैं।

तुम यह नहीं समझ सकते....

एक बार भगवान कृष्ण से भेंट करने उद्धव गए। उद्धव और माधव दोनों बचपन के दोस्त थे। द्वारपाल ने कहा-‘‘इस समय भगवान पूजा में बैठे हैं, इसलिए अभी थोड़ी देर आपको ठहरना होगा।’’ समाचार पाते ही भगवान शीघ्र पूजा कार्य से निवृत होकर उद्धव से मिलने आए। कुशल प्रश्न के बाद भगवान ने पूछा-‘‘उद्धव ! तुम किसलिए आए हो ?’’

उद्धव ने कहा-‘‘यह तो बाद में बताऊँगा, पहले मुझे यह बतलाएँ कि आप किसका ध्यान कर रहे थे ?’’ भगवान ने कहा-‘‘उद्धव ! तुम यह नहीं समझ सकते।’’ लेकिन उद्धव ने जिद की, तब भगवान ने कहा-‘‘उद्धव ! तुझे क्या बताऊँ, मैं तेरा ही ध्यान कर रहा था।’’ 

सेवक स्वामी का जितना ध्यान रखते हैं, स्वामी भी सेवक का उतना ही ध्यान, सम्मान रखते हैं।

जितनी बार गिरो, उतनी बार उठो...

सुप्रसिद्ध अँगरेज अभिनेता टाल्या के स्वास्थ्य और सौंदर्य से आकर्षित होकर ड़ाइरेक्टरों ने उसकी माँग स्वीकार कर ली और उसे रंगमंच पर पहुँचा दिया, किंतु उस बेचारे से न तो एक शब्द बोलते बना, न नाचते-कूदते। फिल्म ड़ाइरेक्टर नें गले की कमीज पकड़ी और झिड़ककर नीचे उतार दिया। कई अच्छे लोगों की सिफारिस के कारण एक बार फिर रंगमंच पर पहुँच तो गया, पर बेचारे की एक ड्रामे में बोलते समय ऐसी घिग्गी बँधी कि कुछ बोल ही नहीं पाया। फिल्म की आधी रीलें बेकार गई। ड़ाइरेक्टरों ने ड़ाँटकर कहा-‘‘अब दुबारा आने का प्रयत्न मत करना महाशय ?’’

और उसे ड़ाँटकर वहाँ से भगा दिया। टाल्या फिर भी हिम्मत न हारा, कुलियों जैसे सामान उठाने के छोटे-छोटे पार्ट अदा करते-करते एक दिन सुप्रसिद्ध अभिनेता बन गया। किसी ने पूछा-‘‘तुम्हारी सफलता का रहस्य क्या है ?’’ तो उसने हँसकर कहा-‘‘जितनी बार गिरो, उतनी बार उठो।यह सिद्धान्त स्वीकार कर लें तो आप भी निरंतर उठते चले जाएँगे, किसी सहारे की जरूरत नहीं पड़ेगी।’’

जनमानस के मोती...

स्वाति नक्षत्र था। वारिद जलबिंदु तेजी से चला आ रहा था।

वृक्ष की हरित नवल कोंपल ने रोककर पूछा-‘‘पिय ! किधर चले ?’’

‘‘भद्रे ! जलनिधि पर सूर्य की कोपदृष्टि हुई, वह उसे सुखाए ड़ाल रहा है। जलनिधि की सहायता करने जा रहा हूँ।’’

‘‘छोड़ो भी व्यर्थ की चिंता। खुद को मिटाकर भी कोई किसी की सहायता करता है ! चार दिन की जिंदगी है, कर लो आनंदभोग। कहाँ मिलेगी कोमल शय्या!’’

जलबिंदु ने एक न सुनी। तेजी से लुढ़क पड़ा सागर की ओर। नीचे तैर रही थी सीप। उसने जलबिंदु को आँचल में समेट लिया, वह जलबिंदु न रहकर हो गया मोती। सागर की लहरों से एक धीमी-सी ध्वनि निकली- ‘‘निज अस्तित्व की चिंता छोड़कर समाज के कल्याण के लिए जो अग्रसर होते हैं, वे बन जाते हैं जनमानस के मोती।’’

परिश्रम और पुरूषार्थ का मूल्य

भिखारी दिन भर भीख माँगता-माँगता शाम को एक सराय में पहुँचा और भीतर की कोठरी में भीख की झोली रखकर सो गया।

थोड़ी देर पीछे एक किसान आया। उसके पास रूपयों की एक थैली थी। किसान बैल खरीदने गया था।

भीख की झोली रूपयों की थैली से बोली-‘‘बहन ! हम तुम एक बिरादरी के हैं, इतनी दूर क्यों हैं, आओ हम तुम एक हो जाएँ ?’’

रूपयों की थैली ने हँसकर कहा-‘‘बहन ! क्षमा करो, यदि मैं तुमसे मिल गई तो संसार में परिश्रम और पुरूषार्थ का मूल्य ही क्या रह जाएगा !’’

सहृदयता का आर्दश

एक बार देवता मनुष्यों के किसी व्यवहार से क्रुद्ध हो गए। उन्होंने दुर्भिक्ष को पृथ्वी पर भेजा और मनुष्यो के होश दुरस्त करने की आज्ञा दे दी।

दुर्भिक्ष ने अपना विकराल रूप बनाया। अन्न और जल के अभाव में असंख्य मनुष्य रोते-कलपते मृत्यु के मुख में जाने लगे। अपनी सफलता का निरीक्षण करने दुर्भिक्ष दर्पपूर्वक निकला तो उस भयंकर विनाश के बीच एक प्रेरक दृश्य उसने देखा।

एक क्षुधित मनुष्य कई दिन के बाद रोटी का छोटा टुकड़ा कहीं से पाता है, पर वह उसे स्वयं नहीं खाता, वरन भूख से छट-पटाकर प्राण त्यागने की स्थिति में पहुँचे हुए एक सड़े कुते को वह रोटी का टुकड़ा खिला देता है।

इस दृश्य को देखकर दुर्भिक्ष का हृदय उमड़ पड़ा आँखें भर आई। उसने अपनी माया समेटी और स्वर्ग को वापस लौट गया।

देवताओं ने इतनी जल्दी लौट आने का कारण पूछा तो उसने कहा-‘‘जहाँ सहृदयता का आर्दश जीवित हो, वहाँ देवलोक ही होता। धरती पर भी मैंने स्वर्ग के दृश्य देखे और वहाँ से उलटे पाँवों लौटना पड़ा।’’

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