रविवार, 23 अक्तूबर 2011

अल्पभाषी सर्वोत्तम मानव है ...

1) अन्तर्मन के चक्षु बाह्य नेत्रों से भी अधिक प्रबल है।
-------------
2) अनजान होना इतनी लज्जा की बात नहीं, जितना सीखने के लिए तैयार न होना।
-------------
3) अगर संकेत मिल जाए तो बस बड़ा कदम उठाने से घबराये नहीं, क्योंकि आप एक चैड़ी खाई को दो छोटी छलांगो में पार नहीं कर सकते।
-------------
4) अगर आप अपने दिमाग को इन तीन बातों -काम करने, बचत करने और सीखने के लिये तैयार कर लेते हैं तो आप उन्नति कर सकते है।
-------------
5) गायत्री साधना मात्र जीभ से मंत्रोच्चारण करने से नहीं, महानता के आदर्शो को जीवन-यात्रा का एक अंग बनाने पर सम्पन्न होती हैं। इसके लिए जहा व्यक्ति का चिन्तन सही रखने के लिए आहार सही होना जरुरी हैं, वहीं श्रेष्ठ विचारों को आमन्त्रित करने की कला भी उसे सीखनी होगी, तभी ध्यान सफल होगा।
-------------
6) अगर आपको किसी की हॅंसी निर्मल लगती हैं तो जान लीजिये वह आदमी भी निश्छल है।
-------------
7) अगर आपके पाँव में जूते नहीं हैं तो अफसोस न करे ऐसे भी लोग हैं जिनके पाँव ही नहीं है।
-------------
8) अगर आपने हवा में महल बनाया हैं तो कोई खराब काम नहीं किया। पर अब उसके नीचे नींव बनाइये।
-------------
9) अल्प ज्ञान वाला महान् अहंकारी होता है।
-------------
10) अल्पमत कभी-कभी और बहुमत अनेक बार गलत साबित हुआ है।
-------------
11) अल्पभाषी सर्वोत्तम मानव है।
-------------
12) गंभीरतापूर्वक विचार किया जाये तो प्रतीत होगा कि जीवन और जगत् में विद्यमान समस्त दुःखों के कारण तीन हैं - 1. अज्ञान 2 अशक्ति 3. अभाव। जो इन तीन कारणों को जिस सीमा तक अपने से दूर करने में समर्थ होगा, वह उतना ही सुखी बन सकेगा।
-------------
13) गांधी जी, डा.प्रफूल्ल चन्द्र राय से - विदेशी ढंग से कपडे पहनकर सही ढंग से राष्ट्रसेवा नहीं की जा सकती। राष्ट्रीय मूल्य, राष्ट्रीय भावनाए एवं राष्ट्रीय संस्कृति, इन सबकी एक ही पहचान हैं, अपना राष्ट्रीय वेश-विन्यास।
-------------
14) गहरे दुःख से वाणी मूक हो जाती है।
-------------
15) गभ्मीरता सज्जनो का पहला लक्षण है।
-------------
16) गीता का पठन-मनन करने वाला प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दे सकता हैं । प्रतिदिन गीता का पाठ, विचार करना शुरु कर दें। गीता के अनुसार अपनी व्यवहार करें, जीवन बनायें तो दुःख, सन्ताप, हलचल सब मिट जायेगी।
-------------
17) गीता ने कामना के त्याग पर विशेष जोर दिया हैं। ऐसा होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये-यह कामना हैं। शान्ति स्वतःसिद्ध हैं। अशान्ति कामना से ही होती हैं।
-------------
18) गरीब बच्चों को मिठाई खिलाओ तो शोक-चिन्ता मिट जायेंगे।
-------------
19) गरीब वह नही, जिसके पास कम हैं, बल्कि वह हैं, जो अधिक चाहता है।
-------------
20) गाय को सहलाने से, उसकी पीठ आदि पर हाथ फेरने से गाय प्रसन्न होती हैं। गाय के प्रसन्न होने पर साधारण रोगो की तो बात ही क्या हैं, बडे-बडे असाध्य रोग भी मिट सकते है। लगभग बारह महिने तक कर के देखना चाहिये।
-------------
21) गाय के गोबर में लक्ष्मी का और गोमूत्र में गंगा का निवास माना गया है।
-------------
22) लाठी व पत्थरों से तो प्रायः हड्डिया ही टूटती हैं, परन्तु शब्दों से प्रायः संबंध टूट जाते है।
-------------
23) लोभ नहीं हो तो रुपया सुख नहीं दे सकता है।
-------------
24) लोग प्यार करना सीखे। हममें, अपने आप में, अपनी आत्मा और जीवन में , परिवार में, समाज में, कर्तव्य में और ईश्वर में दसों दिशाओं में प्रेम बिखेरना और उसकी लौटती हुयी प्रतिध्वनि का भाव भरा अमृत पीकर धन्य हो जाना, यही जीवन की सफलता है।

गायत्री माता...

गायत्री माता के पाँच मुख और दस हाथ आलंकारिक दृष्टि से चित्रित किये जाते है। कितनी ही मूर्तिया तथा तस्वीरे इस प्रकार के चित्रण सहित मिलती है। यह पाँच मुख अन्नमय कोष, मनोमय कोष, प्राणमय कोष, विज्ञानमय कोष, और आनन्दमय कोष है। दस भुजायें उपर्युक्त पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच देवियो और पाँच मानस तत्व से सम्बन्धित पाँच देवता हैं, इन दोनो को मिलाकर गायत्री की दस भुजायें बनती है।

प्रेम

अन्तरात्मा में प्रकाश उत्पन्न करने वाला तत्व प्रेम हैं। समस्त सत्प्रवर्त्तियाँ उसी की सहचरी हैं। कृष्ण चरित में जिस रास और महारास का आलंकारिक रुप से सुविस्तृत और आकर्षक वर्णन हुआ हैं , उसमें प्रेम तत्व को कृष्ण के रुप में और सत्प्रवर्त्तियों को गोपियो के रुप में चित्रित किया गया हैं। एक प्रेमी और अनेक प्रेमिकाए। यह आश्चर्य अध्यात्म जगत में सम्भव है।

I am not a person I am a thought

It is an evident fact that peoples’ charity and services to society are a source of inspiration to others. Only these people can survive and contribute, along with patience, in the mission of changing an era (Yug Nirman). Only such people can be expected to make solid contributions. The people who have joined the Thought Revolution (the Gayatri mission) by being influenced by yagnas and speeches could not stay long. However, those who have stepped forward in the mission after a deep analysis of Gayatri literature are speedily heading towards their targets with deep loyalty and faith. For the mission of the evolution of an era (Yug Nirman Yojna), we do not want to build castles in the air by taking people who are just pumped up with an enthusiastic mentality and simultaneously still immature. 

In this mission, expectations will only be from those who have understood the substance and reached the root of the literature. If we build an organization with incompetent people, then how long will it last? Many branches of Gayatri Parivaar have failed due to this basic flaw but we should not repeat this mistake. People who do not place value in thought cannot stay with any organizational work. The people who did not subscribe to Akhand Jyoti and read Gayatri literature, although strong devotees for some time span, later became totally isolated from the mission. The reason behind this idea is that the source of inspiration was broken off. There was no deep level of self involvement that could have remained whilst dealing with materialistic problems. 

We frequently observe that person blabbering right in front of us and wonder; Is he attached to our thought process and literature through the Akhand Jyoti or not? If he/she disowns and ignores the literature, then we are convinced that he/she will not remain attached to the mission for long. One who does not love and relate to our thoughts will not be able to contribute for a long period of time. Even if they have a polite tone and mannerism, their verbal love for Guruji alone cannot contribute any great work. 

-Pt. Shriram Sharma Acharya
Translated from - Pandit Shriram Sharma Acharya’s work
Yug Nirman Yojna - philosophy, format and program -66 (2.50)

मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ

यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि पारमार्थिक कार्यों में निरन्तर प्रेरणा देने वाली आत्मिक स्थिति जिनकी बन गई होगी, वे ही युग-निर्माण जैसे महान कार्य के लिए देर तक धैर्यपूर्वक कुछ कर सकने वाले होंगे । ऐसे ही लोगों के द्वारा ठोस कार्यों की आशा की जा सकती है । गायत्री आन्दोलन में केवल भाषण सुनकर या यज्ञ-प्रदर्शन देखकर जो लोग शामिल हुए थे, वे देर तक अपनी माला साधे न रह सके, पर जिन लोगों ने गायत्री साहित्य पढक़र, विचार मंथन के बाद इस मार्ग पर कदम बढ़ाया था, वे पूर्ण निष्ठा और श्रद्धा के साथ लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ते चले जा रहे हैं । युग-निर्माण कार्य के लिए हम उत्तेजनात्मक वातावरण में अपरिपक्व लोगों को साथ लेकर बालू के महल जैसा कच्चा आधार खड़ा नहीं करना चाहते ।

इसलिए इस संघ में उन्हीं लोगों पर आशा भरी नजर डाली जाएगी जो बात को गहराई तक समझ चुके हैं, उसकी जड़ तक जा चुके हैं । वरना आड़े-सीधे लोगों का भानुमती का कुनबा इकट्ठा करके कोई संगठन बना लिया जाए, तो वह ठहरता कहॉं है ? गायत्री परिवार की कितनी ही शाखाएँ इसी प्रकार ठप्प हुईं। अब उस गलती को दुबारा नहीं दुहराना चाहिए। जिन लोगों की दृष्टि में विचारों का कोई मूल्य या महत्त्व नहीं, वे किसी कार्य में देर तक कब ठहरने वाले हैं ?जो लोग अखण्ड-ज्योति नहीं मँगा सके, जो गायत्री साहित्य नहीं पढ़ सके, वे किसी समय बड़े भारी श्रद्धावान दीखने वाले साधक भी आज सब कुछ छोड़े बैठे दीखते हैं । प्रेरणा का सूत्र टूट गया, अपना निज का कोई गहरा स्तर था नहीं, फिर उनके पैर भौतिक बाधाओं के झकझोरे में कब तक टिके रहते ?

इसीलिए हम यह बारीकि से देखते रहते हैं कि सामने बैठा हुआ, लम्बी-चौड़ी बातें बनाने वाला व्यक्ति हमारी विचारधारा के साथ अखण्ड-ज्योति या साहित्य के माध्यम से बँधा है या नहीं ? यदि वह इस की उपेक्षा करता है तो हम समझ लेते हैं कि यह देर तक टिकने वाला नहीं है । जो हमारे विचारों को प्यार नहीं करते, उनका मूल्य नहीं समझते वे शिष्ठाचार में मीठे शब्द भले ही कहें, गुरुजी-गुरुजी, वस्तुत: वे हमसे हजारों मील दूर हैं, उनसे किसी बड़े काम की कोई आशा नहीं रखी जा सकती ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (२.५०)

Now Study is the Only Option

Human mind is like a blank paper or an unexposed photographic film, which records the effect of surrounding situations, events and thoughts, accordingly shaping the mentality. A person is basically neither wise nor a fool, neither good nor bad, but very sensitive, and hence, is deeply influenced by the surrounding and moulded in the same pattern. This can lead him to great heights or it can throw him into hell, based on the environment around him.The most important thing needed for raising our personality to greater heights is a thought process associated with not only idealism, but also with our faith and favour. This can be fulfilled in two ways: One, long enough association with a Guru, idealist person with high moral and sound character; and Second, reading, study and absorption of thoughts of such great personalities. Under the prevailing circumstances, the first option seems very difficult, as such great people have become so rare now, and gradually they are being replaced by the cheaters and fraudsters who themselves are confused and mislead the followers who blindly confide in them. The really deserving spiritual leaders are so busy in refining the current situation that they hardly can devote any time to accompany and lead the anxious mass. Therefore, if one is fortunate enough to be around a really honest wise man, he should get the chance to satisfy the thirst of knowledge, because, long association with such personalities is rarely possible. 

The second option is readily available – and that is the reading and deep study of thoughts of great spiritual leaders, expressed and written in books. Only through such study, a prolonged atmosphere can be created in our mind which can lead us to a glorious, divine life. Our efforts to satisfy this spiritual hunger must be far stronger than working for our physical needs of bread, butter and shelter. The study of such pious literature must become a part of our daily routine. Then only our mind can be protected from ill-effects of the polluted environment, which otherwise encourages us to involve into deteriorated, shameful activities. If not curtailed, this environment can provoke common mass to look for benefits in such activities.So, self study of great thoughts and pious books is the only solution to protect our mind from contaminated environment. The great spiritual personalities - living or dead, have created the literature containing immortal thoughts, and this is permanently available in the form of books for our study. Such books are inexpensive, they do not cost much, but the benefit derived from them is precious like gold and invaluable.It hardly needs to mention that Yug Nirman Yojana combines the old wisdom with the new knowledge and imbibes the principles of our ancient “Sanatan” religion along with the modern intellectual and scientific thought process. The learned class admires it as a marvellous and unique combination. It is a wise step to study the Yug Nirman Literature instead of reading many diversified books leading to confusion.Let us make a good habit of reading Yug Nirman Literature a part of our routine daily life. 

-Pt. Shriram Sharma Acharya
Translated from - Pandit Shriram Sharma Acharya’s work
Yug Nirman Yojana – The Vision, Structure and the Program – 66 (6.28)

अब स्वाध्याय ही एकमात्र विकल्प

मनुष्य का मन कोरे कागज या फोटोग्राफी की प्लेट की तरह है जो परिस्थितियॉं, घटनाएँ एवं विचारणाएँ सामने आती रहती हैं उन्हीं का प्रभाव अंकित होता चला जाता है और मनोभूमि वैसी ही बन जाती है । व्यक्ति स्वभावत: न तो बुद्धिमान है और न मूर्ख, न भला है, न बुरा । वस्तुत: वह बहुत ही संवेदनशील प्राणी है । समीपवर्ती प्रभाव को ग्रहण करता है और जैसा कुछ वातावरण मस्तिष्क के सामने छाया रहता है उसी ढाँचे में ढलने लगता है । उसकी यह विशेषता परिस्थितियों की चपेट में आकर कभी अध:पतन का कारण बनती है । कभी उत्थान का । व्यक्तित्व की उत्कृष्टता के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता उस विचारणा की है जो आदर्शवादिता से ओत-प्रोत होने के साथ-साथ हमारी रुचि और श्रद्धा के साथ जुड़ जाये । यह प्रयोजन दो प्रकार से पूरा हो सकता है । एक तो आदर्शवादी उच्च चरित्र महामानवों का दीर्घकालिन सान्निध्य, दूसरा उनके विचारों का अवगाहन व स्वाध्याय । वर्तमान परिस्थितियों में पहला तरीका कठिन है । एक तो तत्वदर्शी महामानवों का एक प्रकार से सर्वनाश हो चला है । श्रेष्ठता का लबादा ओढ़े कुटिल, दिग्भ्रान्त, उलझे हुए लोग ही श्रद्धा की वेदी हथियाये बैठे हैं । उनके सानिघ्य में व्यक्ति कोई दिशा पाना तो दूर, उल्टा भटक जाता है । जो उपयुक्त हैं वे समाज की वर्तमान परिस्थितियों को सुधारने के लिए इतनी तत्परता एवं व्यस्तता के साथ लगे हुए हैं कि सुविधापूर्वक लम्बा सत्संग दे सकना उनके लिए भी संभव नहीं, फिर जो सुनना चाहता है वही कहाँ खाली बैठा है। इसलिए जिन सौभाग्यशालियों को प्रमाणिक महापुरूषों का सान्निध्य जब कभी मिल जाये तब उतने में ही संतोष कर लेना पड़ेगा । दीर्घकालीन सत्संग की संभावनाएँ आज की स्थिति में कम ही हैं ।

दूसरा मार्ग ही इन दिनों सुलभ है । स्वाध्याय के माघ्यम से मस्तिष्क के सम्मुख वह वातावरण देर तक आच्छादित रखा जा सकता है जो हमें प्रखर और उत्कृष्ट जीवन जी सकने के लिए उपयुक्त प्रकाश दे सके । स्वाध्याय में बौद्धिक भूख और आध्यात्मिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए हमें पेट को रोटी और तन को कपड़ा जुटाने से भी अधिक तत्परता के साथ प्रयत्नशील होना चाहिए । स्वाध्याय दैनिक नित्य कर्मों में शामिल रखा जाये । क्योंकि चारों ओर की परिस्थितियॉं जो निष्कर्ष निकालती हैं उनमें हमें निकृष्ट मान्यताएँ और गतिविधियॉं अपनाने का ही प्रोत्साहन मिलता है । यदि इस दुष्प्रभाव की काट न की गई तो सामान्य मनोबल का व्यक्ति दुर्बुद्धि अपनाने और दुष्कर्म करने में ही लाभ देखने लगेगा । इसी प्रकार मन के चारों ओर के गर्हित वातावरण का प्रभाव पड़ते रहने से जो मलीनता जमती है उसके परिष्कार का एकमात्र उपाय स्वाध्याय ही रह जाता है । जीवित या मृत महामानवों के विचारों, चरित्रों का प्रभाव जब चाहे तब, जितनी देर तक चाहें उतनी देर तक उनके साथ सामीप्य-सान्निध्य का लाभ ले सकते हैं । उनका साहित्य हमें हर समय उपलब्ध रह सकता है और अपनी सुविधानुसार चाहे जितना सम्बन्ध उसके साथ जोड़ा रखा जा सकता है । पुस्तकों का मूल्य स्वल्प होता है पर उनके द्वारा जो प्रभाव उपलब्ध किया जा सकता है उसे बहुमूल्य या अमूल्य ही मानना पड़ेगा । कहना न होगा कि युग-निर्माण योजना ने प्राचीनतम और नवीनतम का अनुपम सम्मिश्रण किया है । सृष्टि के आदिकाल से लेकर चले आ रहे सनातन धर्म सिद्धांतों के आधुनिक बुद्धिवाद और विज्ञानवाद के साथ जोडक़र वर्तमान परिस्थितियों के उपयुक्त ऐसे समाधान प्रस्तुत किये हैं, जिन्हें विवेकवानों ने अद्भुत और अनुपम कहा है । उचित यही होगा कि हर दिग्भ्रान्त करने वाली विभिन्न पुस्तकें पढऩे की अपेक्षा स्वाघ्याय के लिए युग-निर्माण साहित्य चुनें और उसे पढऩे का क्रम नित्यकर्म की तरह अपने दिनचर्या में सम्मिलित कर लें ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (६.२८)

कर्मफल भी किश्तों में

बाजारू व्यवहार नकद लेन-देन के आधार पर चलता है । 'इस हाथ दे, इस हाथ ले' का नियम बनाकर ही छोटे दुकानदार अपना काम चलाते हैं।' 'आज नकद, कल उधार' के बोर्ड कई दुकानों पर लगे होते हैं । इतने पर भी यह नियम अकाट्‌य और अनिवार्य नहीं है। सर्वदा ऐसा ही होता हो, सो बात भी नहीं है। बैंक पूरी तरह उधार देने-लेने पर ही अवलम्बित हैं । बैंक कर्ज भी देता है और उसे किश्तों में चुकाने की सुविधा भी ।

उपरोक्त दोनों व्यवहारों के उदाहरण जीवन में अपनाई गई गतिविधियों के परिणाम उपलब्ध करने के सम्बन्ध में लागू होते हैं। ठीक यही प्रक्रिया मनुष्य शरीर में प्रवेश करने के उपरान्त भी किए गए दुष्कर्मों के सम्बंध में है । उनका सारा प्रतिफल तत्काल नहीं मिलता । यदि मिलने लगे, तो उसी दबाव में जीव दबा रह जाएगा । जीवनक्रम चलाने के लिए या प्रगति की व्यवस्था करने के लिए कोई अवसर ही हाथ न रहेगा, दण्ड की प्रताड़ना से ही कचूमर निकल जाएगा । कर्मफल का अवश्यम्भावी परिणाम चट्‌टान की तरह अटल है, पर उनके सम्बन्ध में यही नियति निर्धारण है कि यह उपलब्धि किश्तों में हो । जिसने दुष्कंर्म किए हैं, उसे दण्ड धीरे-धीरे जन्म-जन्मान्तरों में भुगतना पड़ेगा । यह नियम सत्कंर्मों के बारे में भी है वह भी धीरे-धीरे मिलता रहता है ।

इस विद्या के कार्यान्वित होने की एक स्वसंचालित प्रक्रिया है। कर्म-बन्धनों की ग्रन्थियाँ बनकर अन्तराल की गहराई में जड़ जमा लेती हैं और फिर धीरे-धीरे अपने अंकुर उगाती रहती हैं । इनका स्वरूप अन्तःप्रेरणा बनकर फलित होता है, जिससे कुकर्मों के फलस्वरूप नारकीय प्रताड़ना भुगतनी पड़ती है । उनकी अन्तःचेतना ऐसी आकांक्षाएँ उत्पन्न करती है, जो आगे भी कुकर्मों की ओर धकेले । ऐसी दशा में सुधार-परिष्कार के सामयिक प्रयत्न उस अन्तःप्रेरणा के दबाव में निरस्त होते, असफल रहते हैं । यदि सत्कर्म सुसंस्कार बनकर अन्तराल में जमे हैं, तो बाह्य परिस्थितियों के प्रतिकूल होने पर भी अपना काम करते हैं । अवरोधों को पराजित करते रहते हैं । पतन के वातावरण को भीतरी चेतना उलट देती है, इस प्रकार कर्मफल उपरोक्त दोनो सिद्धांतों पर कार्य करता है ।

जीवन देवता की साधना - आराधना (2)-1.29
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

हिंसक दीपावली मनाने वालों ! थोड़ा विचार तो करों !

सुरक्षित दीवाली कैसे मनाये ....???

पटाखें फोड़ने से लाभ या हानि ?

सर्वोदय अहिंसा अभियान 

आओ ज्ञान का दिया जलायें, अंधकार को दूर भगाएँ।

1. देश का अरबों रूपया व्यर्थ बर्बाद होता हैं, जिससे गरीबी बढ़ती है।
----------------
2. असावधानी के कारण घरों, दूकानों और कभी-कभी पूरे बाजार में आग लगने से अरबों रूपयों की सम्पत्ति स्वाहा हो जाती है। अनेक लोग जल जाते है।
----------------
3. पटाखें से जलने के कारण शरीर जल जाता है।
----------------
4. पटाखों की आवाज एवं बारूद के कारण आँख एवं कान खराब हो जाते है।
----------------
5. अस्थमा के रोगी इन दिनों घर से बाहर नहीं निकल पाते है। उन्हें अकारण अवांछित कैद-जेल में रहने को मजबूर होना पड़ता है।
----------------
6. आकाश में छोड़े जाने वाले पटाखों से अनेक पक्षी घायल हो जाते है या मारे जाते है
----------------
7. पटाखों के धमाकों से मूक पशु-पक्षियों को असह्य मानसिक वेदना सहन करनी पड़ती है।
----------------
8. अनन्त जीवों की हत्या होती है। पटाखों की आग से वे जीवित ही जल जाते है।
----------------
9. हवा में प्राणघातक विषैला धुआँ फैलता हैं, जिससे श्वाँस लेना मुश्किल हो जाता है।
----------------
10. घरों एवं अस्पतालों में बीमार व्यक्तियों/मरीजों को असीम वेदना सहन करनी पड़ती है।
----------------
11. पटाखों पर देवी-देवताओं, महापुरूषों के चित्र बने होते है। पटाखा फटने के बाद इन चित्रों के टुकड़े हो जाते है, जो गंदगी के साथ पड़े रहते है और हमारे ही पैरों तले कुचले जाते है। एक ओर महापुरूषों के आदर-सम्मान की बातें, दूसरी ओर यह कृत्य कितना शोभास्पद है।
----------------
12. चाइनीज पटाखों में हानिकारक केमिकल का प्रयोग होता है, जो बहुत ही नुकसानदायक होते है। हमें देशहित में भी विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना चाहिए। फिर यह तो हमारे शरीर के लिए भी घातक है।
----------------
आयोजक-अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन
प्रायोजक-श्री कुन्दकुन्द कहान पारमार्थिक ट्रस्ट, मुम्बई
सौजन्य- श्री संजय शास्त्री, जयपुर, 09785999100

दीपावली पर हम क्या-क्या कर सकते है ?

सर्वोदय अहिंसा अभियान

1. जिनकी याद में हम त्योंहार मना रहे हैं। उनके गुणों जैसे कर्तव्य पालन, पितृभक्ति, सत्य-अहिंसा आदि का पालन करे।
------------------
2. अज्ञान के अंधकार को दूर भगाकर ज्ञान का प्रकाश फैलायें। व्रत-नियम धारण करें, दूसरों को प्रेरणा दें। 
------------------
3. मंदिर में जाकर विशेष पूजा-अर्चना करें। लोगों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरणा दे।
------------------
4. आज के दिन किसी भी जीव को न सताने, न मारने, न पीड़ा देने के साथ ही पशु-पक्षियों के प्रति उपकार भाव रखने का अभ्यास करना चाहिए तथा पूरे वर्ष के लिए ऐसा करने की भावना निभानी चाहिए।
------------------
5. तड़क-भड़क, दिखावा, आडम्बर, प्रदर्शन से दूर रहें।
------------------
6. पटाखें न चलायें। पटाखे चलाने में किसी से होड़ न करे।
------------------
7. गरीबों, असहायों, बीमारों, की सेवा करें, उन्हें भोजन, वस्त्र, दवा आदि दान में दें।
------------------
8. गरीब बच्चों के पढ़ने की व्यवस्था करें, उन्हें कपड़े एवं पुस्तकें दें।
------------------
9. दीन-हीन निर्धनों को व्यापार एवं शिक्षा के अवसर उपलब्ध करवाकर उन्हें स्वयं के पैरों पर खड़ा करने में सहायता करे।
------------------
10. इस दिन कम से कम अपने आस-पड़ौस के पाँच लोगों को पटाखों की हानियों से परिचित करायें एवं पटाखा न फोड़ने के लिए प्रेरणा दें।
------------------
11. प्रतिज्ञा करें कि हमारे किसी भी कार्य से जीवन रक्षक पर्यावरण प्रदूषित न हो।
------------------
12. लौकिक दीपक के साथ-साथ अज्ञान-अंधकार मिटाते हुए अपने हृदय में ज्ञान का दीप जला कर पूर्ण ज्ञान प्राप्ति की भावना लायें।
------------------
आयोजक-अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन
प्रायोजक-श्री कुन्दकुन्द कहान पारमार्थिक ट्रस्ट, मुम्बई
सौजन्य- श्री संजय शास्त्री, जयपुर, 09785999100

LinkWithin

Blog Widget by LinkWithin