मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

शान्त मस्तिष्क

प्रत्येक छोटे से लेकर बड़े कार्यक्रम शान्त और संतुलित मस्तिष्क द्वारा ही पूरे किए जा सकते हैं। संसार में मनुष्य ने अब तक जो कुछ भी उपलब्धियां प्राप्त की हैं, उनके मूल में धीर-गंभीर, शान्त मस्तिष्क ही रहे हैं। कोई भी साहित्यकार, वैज्ञानिक, कलाकार-शिल्पी, यहा तक की बढ़ई, लोहार, सफाई करने वाले श्रमिक तक अपने कार्य, तब तक भली भांति नहीं कर सकते, जब तक उनकी मन-स्थिति शान्त न हो

सफलता की धुरी

स्काटलैंड का सम्राट ब्रूस अभी गद्दी पर बैठ भी नहीं पाया था कि दुश्मनों का आक्रमण हो गया। संभल ही पाया था कि फिर दोबार हमला हो गया। हारते-हारते बचा। फिर सेना व्यवस्थित की, पर कई राजाओं ने मिलकर हमला किया तो राजगद्दी फिर छिन गई। लगातार चैदह बार उसने राजगद्दी पाने का प्रयास किया, पर असफल रहा। उसके सैनिक भी उसके भाग्य को कोसने लगे और उसे छोड़कर जाने लगे।

निराश ब्रूस एक दिन एक खंडहर में बैठा था। एक मकड़ी हवा में उड़कर एक दूसरे पेड़ की टहनी से जोड़कर जाला बनाने का प्रयास कर रही थी। मकड़ी खंडहर में थी, पेड़ बाहर था। जाला हर बार टूट जाता। बीस बार प्रयास किया, हर बार टूट गया। 21 वी बार में वह सफल हो गई। ब्रूस उछलकर खड़ा हो गया। बोला-‘‘ अभी तो सात अवसर मेरे लिए भी बाकी हैं। हिम्मत क्यों हारू ? पूरी शक्ति लगाकर व्यवस्थित सेना के साथ उसने फिर हमला किया और न केवल राज्य वापस लिया, वरन सभी दुश्मनों को उसने परास्त कर डाला एवं सारे देश का सम्राट बन गया। 

एकाग्रता-मनोयोग-शक्तिसंचय ही सफलता की धुरी हैं।

स्वरयोग

स्वरयोग एवं भोजन ग्रहण करने का परस्पर बड़ा महत्वपूर्ण संबंध हैं। कहा गया हैं-

दाहिने स्वर भोजन करे बाएं पीवे नीर।
ऐसा संयम जब करे सुखी रहे शरीर।।
बाएं स्वर भोजन करे दाहिने पीवे नीर।
दस दिना भूला यों करै पावे रोग शरीर।

भोजन या दूध दही तब ही सेवन करे, जब दायां स्वर चल रहा हो। जल ग्रहण करने के समय बायां स्वर चलना चाहिए। इसके विपरीत आचरण से काया रोगी होती है।

संतोष धन

एक युवक बड़ा परिश्रमी था। दिन भर काम करता, शाम को जो मिलता खा-पीकर चैन की नींद सो जाता। एक दिन उसने एक धनी व्यक्ति का ठाठ-बाट देख लिया। बस नींद उड़ गई। रात भर नींद नहीं आई, उसी के ख्वाब देखने लगा। कुछ संयोग ऐसा हुआ कि उसकी लाटरी लग गई। ढेरों धन उसे अनायास मिल गया। अब उसका सारा समय भोग-विलास में बीतने लगा। वासना की तृप्ति हेतु निरत होने से व श्रम के अभाव से वह दुर्बल होता चला गया। उसके पूर्व के मित्र उससे जलन रखने लगे। सब पैसे के प्रेमी हो गए। उसे भी किसी पर विश्वास नहीं रहा। चिंता और दोगुनी हो गई। नींद फिर चली गई। सोचने लगा, इससे पूर्व की जिंदगी बेहतर थी। 

एक दिन एक महात्मा जी उधर आए। उसने उनसे सुख और खुशी का मार्ग पूछा। महात्मा जी ने एक शब्द कहा-‘‘संतोष’’ और आगे बढ़ गए। युवक समझ गया। सारी मुफ्त की सम्पत्ति उसने एक अनाथालय और विद्यालय को दान कर दी । स्वयं एक लोकसेवी का, परिश्रम से युक्त जीवन जीने लगा। 
सबसे बड़ा धन संतोष धन हैं।

संतुलन का राज

चीन के एक राजा थे। क्वांग नाम था। उन्होने अपने प्रधानमंत्री शूनशुनाओ को तीन बार प्रधानमंत्री पद पर बैठाया और तीन बार हटाया, पर वे न पद पर बैठने पर प्रसन्न हुए, न उतारे जाने पर दुखी-उद्विग्न। चीन के विद्वान किन वू ने उनसे उनकी मनःस्थिरता और दोनों ही स्थितियों में संतुलन का राज जानने का प्रयास किया तो वे बोले कि जब मुझे प्रधानमंत्री बनाया गया तो मेने सोचा कि अस्वीकार करना राजा का अपमान होगा। अपना कर्तव्य निभाया। जब निकाला गया तो सोचा कि मेरी उपयोगिता नहीं रही होगी तो पद से चिपका क्यों रहूं ? मेरा पद से लगा कभी नहीं रहा। मंत्रीपद ने मुझे कुछ दिया नहीं, न उसके छिनने से मेरा कुछ गया। जो भी सम्मान मिला, वह पद का था, सो चला गया। उसमें अफसोस क्या करना। यदि मेरा था तो वह तो कभी कम होने वाला नही हैं।

यह है एक विवेकपूर्ण चिंतन का स्वरूप । हर लोकसेवी को इसी मनःस्थिति में रहकर एक ट्रस्टी भाव से काम करना चाहिए।

प्रायश्चित स्वरूप

उपासना की सबसे बड़ी अनिवार्यता हैं - नियमितता, निरंतरता। नित्य उपासना की जाती हैं, प्रभु को स्मरण किया जाता हैं। उसमें नागा नहीं की जाती। 
गांधी जी दिन भर कठोर परिश्रम के कारण बिस्तर पर आकर बैठ गये। उद्देश्य मात्र सुस्ती भगाने का था, नींद लग गई। ऐसी गहरी नींद आई कि सवेरे तड़के ही खुली। उस दिन उठने के बाद वे ग्लानि से भर गए। सुबह की उपासना तो कर ली, पर शाम की प्रार्थना उनसे जीवन में कभी छूटी नहीं थी। प्रार्थना किए बिना वे कभी सोते नहीं थे। उस दिन प्रायश्चित स्वरूप उन्होंने उपवास रखा। लोगों ने आग्रह किया-‘‘बापू ! अब तो कुछ खा लीजिये।’’ वे नहीं माने। उन्होंने कहा-‘‘ जिस प्रभु के कारण एक एक क्षण मैं जी रहा हूं, उसी परमात्मा को भुला बैठा, तो उससे बड़ा पाप और क्या हो सकता हैं ? बिना प्रायश्चित के कोई खाना खा कैसे सकता हैं ! उस दिन उपवास कर शाम की प्रार्थना की तब वे सोए। आहार अगले दिन ही लिया। ऐसा भाव हो, तो सिद्धिया सहज ही बरसती है।

प्रवाह

प्रवाह इसीलिए हैं, ताकि पूर्णता पाई जा सके। इस जगत में जड़ हो या फिर चेतन, सभी जाने-अनजाने प्रवाहित हो रहे हैं। काल के किनारों के सहारे सब-के-सब बहे जा रहे हैं। सृजन , स्थिति, विलय के पड़ावों को पार करता हुआ जड़ जगत प्रवाहित है। जन्म, बचपन, यौवन व जरावस्था के पड़ावों को पार करता हुआ जड़ जगत प्रवाहित हैं। जन्म बचपन, यौवन व जरारवस्था के पड़ावों को पार करते हुए चेतन जगत की चैतन्यता भी प्रवाहमान हैं। गहराई से देखा जाए तो ठहराव व स्थिरता कहीं दिखाई ही नहीं देती। बाबा फरीद शेख यही सोचते हुए सुबह घूमकर लौट रहे थे।
लौटते समय उन्होंने नदी तट पर छोटे से झरने का मिलना देखा। राह के सूखे पत्तों को हटाकर वह छोटा सा झरना भागकर नदी से मिल रहा था-उसकी दौड़, फिर नदी में उसका आनंदपूर्ण मिलन। फिर उन्होने देखा-अरे! यह नदी भी तो भाग रही हैं। सागर से मिलने के लिए, असीम में खोने के लिए। पूर्ण को पाने के लिए यह समस्त जीवन और जगत राह के सूखे और मृत पत्तों को हटाता हुआ भागा जा रहा हैं।

क्योंकि सीमा में संताप हैं, अपूर्णता में अतृप्ति है, बूंद में दुःख है। सुख तो सागर की सम्पूर्णता में हैं। मनुष्य के सभी दुःखों का कारण उसका अहं की बूंद पर अटक जाना हैं। इस अटकन के कारण ही वह जीवन के अनंत प्रवाह से खंडित हो गया हैं। इस भांति वह अपने ही हाथों सूरज को खोकर दीये की धुंधली लौ में तृप्ति खोजने के चक्कर में परेशान हैं। यहा न तो उसे तृप्ति मिल सकती हैं और न ही परेशानी मिट सकती हैं क्योंकि बूंद, बूंद बनी रहकर कैसे तृप्त हो सकती हैं ! तृप्ति के लिए तो उसे सागर की संपूर्णता की ओर बहना होगा।

प्रवाहित हुए बिना न तो प्रसन्न्ता हैं और न पूर्णता। प्रसन्नता और पूर्णता की अनुभूति पाने के लिए बूंद को मिटना होगा - बहना होगा। उसे सागर की ओर प्रवाहित होकर सागर में मिलना होगा। अहं में अटके-भटके मनुष्य को भी जीवन की धारा में प्रवाहित होकर अनंत ब्रह्म बनना होगा। ‘अहं’ प्रवाह में विलीन हो ब्रह्म बने, तभी संतृप्ति व संपूर्णता संभव हैं।

अखण्ड ज्योति मई 2010

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