बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

आत्मनिर्माण की दूसरी साधना - भावनाओं पर विजय

गंदी वासनाएँ दग्ध की जाए तथा दैवी संपदाओं का विकास किया जाए तो उत्तरोत्तर आत्मविकास हो सकता है। कुत्सित भावनाओं में क्रोध, घृणा, द्वेष, लोभ और अभिमान, निर्दयता, निराशा अनिष्ट भाव प्रमुख हैं, धीरे-धीरे इनका मूलोच्छेदन कर देना चाहिए। इनसे मुक्ति पाने का एक यह भी उपाय है कि इनके विपरीत गुणों- धैर्य, उत्साह, प्रेम, उदारता, दानशीलता, उपकार, नम्रता, न्याय, सत्य-वचन, दिव्य भावों का विकास किया जाए। ज्यों-ज्यों दैवी गुण विकसित होंगे दुर्गुण स्वयं दग्ध होते जाएंगे, दुर्गुणों से मुक्ति पाने का यही एक मार्ग है। आप प्रेम का द्वार खोल दीजिए, प्राणिमात्र को अपना समझिए, समस्त कीट-पतंग, पशु-पक्षियों को अपना समझा कीजिए। संसार से प्रेम कीजिए। आपके शत्रु स्वयं दब जाएँगे, मित्रता की अभिवृद्धि होगी। इसी प्रकार धैर्य, उदारता, उपकार इत्यादि गुणों का विकास प्रारंभ कीजिए। इन गुणों की ज्योति से आपके शरीर में कोई कुत्सित भावना शेष न रह जाएगी। 

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, 
आत्मज्ञान और आत्मकल्याण, पृ. ९"

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