संसार के प्रमुख दार्शनिकों का मत है कि जीव की स्वाभाविक इच्छा और अभिलाषा आत्मिक उन्नति की है। भौतिक सुविधाओं को लोग इकट्ठा करते हैं, इन्द्रियों के विष भोगते हैं, पर बारीक दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि ये सब कार्य भी आत्मिक तृप्ति के लिये किये जाते है। यह दूसरी बात है कि धुँधली दृष्टि होने के कारण लोग नकल को ही असल समझ बैठें। आपने बड़े परिश्रम से धन इकट्ठा किया है, किन्तु विवाह मे उसे बड़ी उदारता के साथ खर्च कर देते है। उस दिन एक पैसे के लिये प्राण दिये मरते थे, आज आप अशर्फिया क्यों लूटा रहे है? इसलिये कि आज आप धन संचित रखने की अपेक्षा उसे खर्च कर डालने में अधिक सुख का अनुभव करते हैं। डाकू जिस धन का जान हथेली पर रखकर लाया था, उसे मदीरा पीनें में इस तरह क्यों उड़ा रहा है? इसलिये कि वह मदीरा पीने के आंनद को धन जोड़ने की अपेक्षा अधिक महत्व देता है। बीमारी में धर्म कार्यो मे, या अन्य बातों पर काफी पैसा खर्च हो जाता है, किन्तु मनुष्य कुछ भी रंज नही करता है। यही पैसा यदि चोरी मे चला जाता है तो उसे बड़ा दुख होता है। इन उदाहरणों से आप देखते है कि जिनका अमूल्य धन-संचय में खर्च हुआ जा रहा है। वे अपने उस जीवन रस को भी एक समय बड़ी लापरवाही के साथ उड़ा देते है। ऐसा इसलिये होता है कि उन खर्चीले कामों में आदमी अधिक आंनद का अनुभव करता है।
अखण्ड ज्योति जून 1980 पृष्ठ 16
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