आचार्य उपकौशल को अपनी पुत्री के लिए योग्य वर की खोज थी। उनके गुरूकुल में कई विद्वान ब्रह्मचारी थे, किंतु वे कन्यादान के लिए ऐसे सत्पात्र की खोज में थे, जो विकट से विकट परिस्थितियों में भी आत्मा को प्रताडि़त न करे। परीक्षा के लिए उन्होंने सब ब्रह्मचारियों को गुप्त रूप से आभूषण लाने को कहा, जिसे माता-पिता क्या, कोई न जाने। सब छात्र चोरी से कुछ-न-कुछ आभूषण लेकर लौटे। आचार्य ने वे आभूषण सॅंभालकर रख लिए। अंत में वाराणसी के राजकुमार ब्रह्मदत खाली हाथ लौटे। आचार्य ने उनसे पूछा-क्या तुम्हें एकांत नहीं मिला ? ब्रह्मदत ने उत्तर दिया-निर्जनता तो उपलब्ध हुई, पर मेरी आत्मा और परमात्मा तो देखते ही थे चोरी को। बस, आचार्य को वह सत्पात्र मिल गया, जिसकी उन्हें खोज थी।
ईश्वर को सर्वत्र विद्यमान देखने वाला कभी अनुचित कार्य नहीं कर सकता।
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