हमारा भारत देश तीर्थों का देश है। उसकी प्रत्यक्ष धार्मिकता का स्वरूप खुली आँखों से देखना हो, तो इन पुण्य क्षेत्रों के निर्माण में किये गये प्रयासों, लगाये हुए साधनों और पहुँचने वाले दर्शकों को देखकर लगाया जा सकता है।
तीर्थ की पुण्य परंपरा एवं उसके महत्त्व पर गायत्री चेतना केन्द्र प्रमुख ने कहा कि तीर्थों के प्राचीन स्वरूप और कार्यक्रमों पर पैनी दृष्टि डालने से स्थिति को समझने में कठिनाई नहीं रहती और उनकी गरिमा बखानने में जो बात कहीं गई है। उनका आधारभूत कारण समझने में कोई अड़चन शेष नहीं रह जाती और यह विश्वास करना सरल पड़ता है कि प्राचीन काल में तीर्थों की कार्य पद्धति और विधि व्यवस्था के सम्पर्क में आने वाले निश्चित रूप से वैसा ही लाभ पाते रहे होंगे, जैसा कि कहा गया है। उन्होंने कहा कि इस प्रक्रिया को तीर्थों की आत्मा कह सकते हैं। उसकी विशिष्टता को गवाँ देने के कारण आज तीर्थों का स्वरूप पर्यटन केन्द्रों जैसा होता जा रहा है और उनकी महत्ता एवं पुण्य फल का जो वर्णन किया गया है, उस का कुछ परिणाम न होने से विश्वास करना कठिन पड़ता है।
प्राचीन काल में तीर्थ ऐसे साधना केन्द्रों के रूप में स्थापित एवं विकसित किए गये थे, जिनसे अंतराल की गहरी परतों का उपचार परिष्कार एवं उत्कर्ष संभव हो सके। इस प्रक्रिया को एक प्रकार से उपयोगी वातावरण में बने हुए साधन सम्पन्न तथा मूर्धन्य चिकित्सकों से भरे-पूरे सैनेटोरियम की उपमा दी जा सकती है। अंतर इतना ही है कि वे उपचार केन्द्र मात्र स्वास्थ्य लाभ भर दे सकते हैं, जबकि तीर्थों से न केवल चिन्तन को मोडऩे-मरोडऩे वाली स्वाध्याय, सत्संग जैसी परिचर्चा चलती है, वरन् मेजर ऑपरेशनों, प्लास्टिक सर्जरी जैसी सुविधा भी रहती है। अन्तःकरण को, अचेतन मन के रहस्यमय क्षेत्रों को सुधारने सँभालने का कार्य तीर्थों में होता रहता है। उसकी कुछ-कुछ तुलना वैज्ञानिक उपचारों से किये जाने वाले ब्रेन वाशिंग से की जा सकती है। अतीन्द्रिय क्षमताओं को उभारने वाले, व्यक्तित्व को सामान्य से असामान्य बनाने वाले उपचार एवं अभ्यास केन्द्रों के रूप में महामनीषियों ने तीर्थों की स्थापना की थी और यह स्थापना अपने समय में पूर्ण तथा सफल भी रही।
आज की तरह तीर्थ यात्रा में भगदड़ के लिए गुंजाइश नहीं थी। जिस-तिस देवालय को भागते- दौड़ते देख भर लेना, पाई-पैसा चढ़ाकर देवता का अनुग्रह बटोर लेना, जलाशय में डुबकी मारकर पाप से पीछा छुड़ा लेना, देवी-देवताओं की प्रतिमा एवं मूर्तियों से मनोकामना की पूर्ति के लिए मनौती माँगते फिरना आज का शुगल है। छोटी बुद्धि इतना ही सोच सकती है और इतना ही उससे बन पडऩा सम्भव है। उच्च दृष्टि और तत्वान्वेषी बुद्धि ही कार्य-कारण की संगति बिठाती है। जिन दिनों लोगों में वस्तुस्थिति समझने की क्षमता न थी, उन दिनों भी लोग तीर्थों में जाते थे, पर उनका उद्देश्य और कार्यक्रम उतना उथला नहीं रहता था, जितना आज देखा जाता है। वे ठण्डक नहीं शान्ति पाने जाते थे। पुण्य नहीं प्रकाश की कामना लेकर पहुँचते थे। मानसिक आरोग्य की उपयोगिता शारीरिक स्वास्थ्य से भी बढ़ी-चढ़ी है।
अस्पतालों, मानसिक चिकित्सालयों, स्वास्थ्य केन्द्रों विश्राम गृहों की उपयोगिता तो इन दिनों समझी जाती है। प्राचीन काल में आरण्यकों की भूमिका इन सबके संयुक्त लाभों से भी बढ़ी-चढ़ी होती थी। शारीरिक, मानसिक और आंतरिक व्याधि-वेदनाओं का निराकरण करने और विक्षोभ के स्थान पर उल्लास भर देने में आरण्यक पूर्णतया समर्थ रहते थे। उन दिनों तीर्थों का स्वरूप भी आरण्यकों जैसा ही बना हुआ था। अतएव मात्र पुण्य लाभ के लिए ही नहीं, प्रत्यक्ष जीवन में उस विशिष्टता को प्राप्त करने हेतु लोग तीर्थों में पहुँचते थे।
-वीरेश्वर उपाध्याय
यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल, रूद्रपुर ( नैनीताल ) से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
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