रविवार, 17 जुलाई 2011

मनुष्य महान् क्यों ?

यदि व्यक्ति द्वारा अपना अस्तित्व पहचाना जा सके, तो वस्तुस्थिति का ज्ञान सहज ही हो सकता है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि आत्म-ज्ञान हो जाने से व्यक्ति अकर्मण्य, निष्क्रिय होकर बैठ जायेगा। सत्य की प्राप्ति कभी किसी क्षेत्र में अनर्थ नहीं करती। सत्य का ढोंग ही अनर्थ करता है। जब यह अनुभव हो जाये कि वस्तुतः यह संसार एक क्रीडांगण है, जहाँ एक ही चेतन सत्ता खेल रही है। यह जगत् अभिनयमय है, जहाँ प्रत्येक जीवात्मा को अपनी योग्यता प्रमाणित करने के लिए भेजा गया है, तो अधिक प्रखरता से साधना हो सकेगी। प्राचीनकाल में ऋषियों ने अपनी अंतर्दृष्टि से, साधना-उपासना से इस भ्रमजाल, मायामय संसार के सत्य को पहचाना था। विज्ञान भी अब उसी बिन्दु की ओर पहुँच रहा है। इसमें कोई संशय नहीं है कि सत्य को प्राप्त करने के लिए सच्ची लगन और जिज्ञासा से किसी क्षेत्र में प्रयास किया जाय, अंततः वह यात्रा एक ही गंतव्य में जाकर समाप्त होगी।

सृष्टि की सबसे विलक्षण, अद्भुत तथा सामर्थ्यवान संरचना है-मनुष्य। किसी भी वस्तु का सही स्वरूप और सामर्थ्य अविज्ञात हो, तो उससे समुचित लाभ उठाते नहीं बनता। प्रकृति की कितनी ही शक्ति धाराओं का ज्ञान मनुष्य को लाखों वर्ष तक न था। फलस्वरूप उनसे लाभ नहीं मिल सका। आज ही नहीं, लाखों वर्ष पूर्व भी वे गुण पदार्थ के गर्भ में विद्यमान थे, जिनसे परमाणु बम जैसे घातक हथियार बनते हैं। वस्तुएँ भी मौजूद थीं, जिनसे राकेटों, अंतरिक्ष उपग्रहों का निर्माण होता है। ऊर्जा के प्रचुर पेट्रोलियम भण्डार पृथ्वी के भीतर दबे पड़े थे, पर दीर्घकाल तक जानकारियों का अभाव बना रहा। फलतः उनसे मनुष्य जाति को प्रगति में विशेष सहयोग न मिल सका। जैसे-जैसे उनकी सामर्थ्य का पता प्राप्त करने की विधा हाथ लगी, द्रुतगति से प्रगति पथ पर बढ़ चलने का मार्ग प्रशस्त हुआ।

अतिरिक्त उत्तरदायित्वों के आधार पर ही किसी को अतिरिक्त साधन दिये जा सकते हैं, अन्यथा ईश्वर को अन्यायियों और पक्षपातियों का सरताज कहा जाता। मनुष्य को मौज उड़ाने के लिए इतना साधन संपन्न बनाने के विरोध में सभी जीवधारी मिल जुलकर आवाज उठाते और नीति-न्याय की कचहरी में इन मिलीभगत वाले ईश्वर और मनुष्य की चैकड़ी को कड़ी सजा दिलाकर रहते। ईश्वर बड़ा है, पर बड़े का अर्थ यह तो नहीं कि वह अपनी ही बनाई मर्यादाओं को तहस-नहस कर दे और मात्र एक ही प्राणी पर स्वेच्छापूर्वक सुख-साधनों का अम्बार बरसा दे तथा दूसरे सभी उस सबके लिए तरसते भर रहें।

निश्चित रूप से मनुष्य को जो कुछ अन्य प्राणियों से अतिरिक्त मिला है, उसके दो ही प्रयोजन हैं। एक आत्म-कल्याण अर्थात् आदर्शों की दृष्टि से अपने को पूर्णता के स्तर तक पहुँचाना। दूसरा विश्व कल्याण-अर्थात् विश्व उद्यान को अधिक व्यवस्थित और समुन्नत बनाने में स्रष्टा का हाथ बँटाना, क्रिया कुशल माली की भावभरी भूमिका निभाना। इन दो उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही मनुष्य को युवराज जैसी वरिष्ठता दी गयी है। इसकी उपेक्षा करके यदि वह शरीरचर्या में निरत रहकर असंयम बरतता है, तो उसकी विलासिता, तृष्णा और अहंता द्वारा अपनाई गयी उद्दण्डता अपराध श्रेणी में गिनी जायेगी। महत्त्वपूर्ण पदों पर अवस्थित अधिकारी जब उत्तरदायित्वों की अवहेलना करते हैं, तो उन्हें भर्त्सना एवं प्रताडऩा भी उतनी ही बड़ी मिलती है।

जीवन को यदि सार्थक बनाना है, आत्मा को यदि जीवन में भागीदार मानना है, तो ईमानदारी इसी में है कि उसकी आवश्यकता समझी जाय, उपलब्धियों में हिस्सेदारी दी जाय। प्रगति और प्रसन्नता का लाभ शत-प्रतिशत शरीर को ही न मिलता रहे, उसकी हिस्सेदारी आत्मा के लिए भी होनी चाहिए।

-डॉ. प्रणव पण्ड्या
(लेखक- देवसंस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार के कुलाधिपति हैं।)

यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल, रूद्रपुर ( नैनीताल ) से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी  हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
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