वर्तमान की समस्त समस्याओं का एक सहज सरल निदान है- अध्यात्मवाद। यदि शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक जैसे सभी क्षेत्रों में अध्यात्मवाद का समावेश कर लिया जाये, तो समस्त समस्याओं का समाधान साथ-साथ होता चले और आत्मिक प्रगति के लिए अवसर एवं अवकाश भी मिलता रहे। विषयों में सर्वथा भौतिक दृष्टिकोण रखने से ही सारी समस्याओं का सूत्रपात होता है। दृष्टिकोण में वांछित परिवर्तन लाते ही सब काम बनने लगेगें।
अध्यात्मवाद का व्यावहारिक स्परूप है, संतुलन, व्यवस्था एवं औचित्य। शारीरिक समस्या तब पैदा होती है, जब शरीर को भोग साधन समझ कर बरता जाता है। आहार-विहार और रहन-सहन को विचार परक बना लिया जाता है। इसी अनौचित्य एवं अनियमितता से रोग उत्पन्न होने लगते हैं और स्वास्थ्य समाप्त हो जाता है। विभिन्न शारीरिक समस्याओं का आसानी से हल निकल सकता है, यदि इस संदर्भ में दृष्टिकोण को आध्यात्मिक बना लिया जाय। पवित्रता अध्यात्मवाद का पहला लक्षण है। यदि शरीर को पूरी तरह पवित्र और स्वच्छ रखा जाय, आत्म संयम और नियमितता द्वारा शरीर धर्म का पालन करते रहा जाय, तो शरीर पूरी तरह स्वस्थ बना रहेगा तथा शारीरिक संकट की संभावना ही न रहेगी। वह सदा स्वस्थ और समर्थ बना रहेगा।
शारीरिक स्वास्थ्य की अवनति या बीमारियों की चढ़ाई अपने आप नहीं होती, वरन् उसका कारण भी अपनी भूल है। आहार में असावधानी, प्राकृतिक नियमों की उपेक्षा, शक्तियों का अधिक खर्च, स्वास्थ्य में गिरावट के प्रधान कारण होते हैं। जो लोग अपने स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देते हैं, उसके नियमों का ठीक-ठीक पालन करते हैं, वे सुदृढ़ एवं निरोग बने रहते हैं।
मनुष्य का मन शरीर से भी अधिक शक्तिशाली साधन है। इसके निर्द्वन्द रहने पर मनुष्य आश्चर्यजनक उन्नति कर सकता है, किंतु यह खेद का विषय है कि आज लोगों की मनोभूमि बुरी तरह विकारग्रस्त बनी हुई है। चिंता, भय, निराशा, क्षोभ, लोभ एवं आवेगों का भूकंप उसे अस्त-व्यस्त बनाये रखता है। यदि इस प्रचण्ड मानसिक पवित्रता, उदार भावनाओं और मनःशांति का महत्त्व समझ लिया जाय और निःस्वार्थ निर्लोभ एवं निर्विकारिता द्वारा उसको सुरक्षित रखने का प्रयत्न कर लिया जाय, तो मानसिक विकास के क्षेत्र में बहुत दूर तक आगे बढ़ा जा सकता है।
सुदृढ़ स्वास्थ्य, समर्थ मन, स्नेह-सहयोग क्रिया-कौशल, समुचित धन, सुदृढ़ दाम्पत्य, ससुंस्कृत संतान, प्रगतिशील विकास क्रम, श्रद्धा, सम्मान, सुव्यवस्थित एवं संतुष्ट जीवन का एकमात्र सुदृढ़ आधार अध्यात्म ही है। आत्म-परिष्कार से संसार परिष्कृत होता चला जाता है। अपने को सुधारने से सारी समस्याओं का समाधान होता चला जाता है। अपने को ठीक कर लेने से आसपास के वातावरण के ठीक बनने में देर नहीं लगती। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि जो अपना सुधार नहीं कर सका, अपनी गतिविधियों को सुव्यवस्थित नहीं कर सका, उसका भविष्य अंधकार मय ही बना रहेगा। इसीलिए मनीषियों ने मनुष्य की सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता उसकी आध्यात्मिक प्रवृत्ति को ही माना है।
-डॉ. प्रणव पण्ड्या
(लेखक- देवसंस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार के कुलाधिपति हैं।)
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