शनिवार, 16 जुलाई 2011

गायत्री की दिव्य शक्ति

गायत्री साधना करने वालों को अनेक लाभों से लाभान्वित होते हुए देखा और सुना है। २४ अक्षरों के एक संस्कृत भाषा के पद्य (मंत्र) को जपने या साधना करने से किस प्रकार इतने लाभ होते हैं, यह एक आश्चर्यजनक पहेली है। इस पहेली को ठीक प्रकार न समझ सकने के कारण कई लोग गलत धारणाएँ बना लेते हैं।

गायत्री एक ऐसा विश्व-व्यापी दिव्य तत्त्व है, जिसे ह्रीं-बुद्धि, श्रीं-समृद्धि और क्लीं-शक्ति, इन त्रिगुणात्मक विशेषताओं का उद्गम कहा जा सकता है। यह महाचैतन्य दैवी शक्ति जब विश्वव्यापी पंच तत्त्वों से आलिंगन करती है, तो उसकी बड़ी ही रहस्यमयी प्रतिक्रियाएँ होती हैं। ईश्वरीय दिव्य शक्ति गायत्री की पंच भौतिक प्रकृति-सावित्री से सम्मिलन पाने के समय जो स्थिति होती है, उसे ऋषियों ने अपनी सूक्ष्म दिव्य दृष्टि से देखकर साधना के लिए मूर्तिमान कर दिया है। विश्व-व्यापिनी गायत्री शक्ति जब आकाश तत्त्व से टकराकर शब्द तन्मात्रा में प्रतिध्वनित होती है, तब उस समय २४ अक्षरों वाले गायत्री मंत्र के समान ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं। हम उसे अपने स्थूल कानों से नहीं सुन सकते; पर ऋषियों ने अपनी दिव्य कर्णेन्द्रियों से सुना कि सृष्टि के अंतराल में एक दिव्य ध्वनि-लहरी गुंजित हो रही है। उसी ध्वनि-लहरी को उन्होंने २४ अक्षर गायत्री के रूप में पकड़ लिया। इसी प्रकार अग्रि तत्त्व के साथ इस सूक्ष्म शक्ति का संबंध होते समय, रूप तन्मात्रा में जो आकृति उत्पन्न हुई, उसे गायत्री का रूप मान लिया। इसी प्रकार वायु, जल, पृथ्वी की तन्मात्राओं में जो उन सम्मिलित तत्त्वों की प्रतिक्रिया हुई, उस स्पर्श, रस और गंध का गायत्री के साथ संबंध किया गया।

मनुष्य का शरीर और मन पंच तत्त्वों का बना हुआ है। पंच तत्त्वों से गायत्री शक्ति का सम्मिलन होते समय सूक्ष्म जगत में जो प्रतिक्रिया होती है, उसी के अनुरूप मानसिक प्रतिक्रिया यदि हम अपनी ओर से अपने मनःक्षेत्र में उत्पन्न करें, तो आसानी से उस दैवी शक्ति गायत्री तक पहुँच सकते हैं। पंच भौतिक जगत और सूक्ष्म दैवी जगत के बीच एक नसेनी, रस्सी, पुल, संबंध सूत्र ऋषियों को दिखाई दिया था, उसे ही उन्होंने गायत्री उपासना के रूप में उपस्थित कर दिया है। मंत्रोच्चारण, ध्यान, तपश्चर्या, व्यवस्था आदि के साथ किये हुए साधन लटकती हुई रस्सियाँ हैं, जिन्हें पकड़ कर हमारी भौतिक चेतना, गायत्री की सर्वशक्तिमान दिव्य चेतना से जा मिलती है। जैसे नंदन वन में पहुँचने पर भूख, प्यास और थकान मिटाने के सब साधन मिल जाते हैं, वैसे ही गायत्री का सान्निध्य प्राप्त कर लेने से आत्मा की सभी त्रुटियाँ, वासनाएँ, तृष्णाएँ, मलीनताएँ दूर हो जाती हैं और स्वर्गीय सुख के आस्वादन का अवसर मिलता है।

गायत्री साधना का प्रभाव सबसे प्रथम साधक के अंतःकरण पर होता है। उसकी आत्मिक भूमिका में सतोगुणी तत्त्वों की अभिवृद्धि होनी आरंभ हो जाती है। किसी पानी के भरे कटोरे में यदि कंकड़ डालना शुरू किया जाय, तो पहले से भरा हुआ पानी नीचे गिरने और घटने लगेगा। इसी प्रकार सतोगुण बढऩे से दुर्गुण, कुविचार, दुस्वभाव, दुर्भाव घटने आरंभ हो जाते हैं। इसी परिवर्तन के कारण साधक में ऐसी अनेक विशेषताएँ उत्पन्न हो जाती हैं, जो जीवन को सरल, सफल और शांतिमय बनाने में सहायक होती हैं। दया, करुणा, प्रेम, मैत्री, त्याग, संतोष, शांति, सेवा-भाव, आत्मीयता, सत्य, निष्ठड्ढा, ईमानदारी, संयम, नम्रता, पवित्रता, श्रमशीलता, धर्मपरायणता आदि सद्गुणों की मात्रा दिन पर दिन बड़ी तेजी से बढ़ती जाती है। फलस्वरूप, संसार में उसके लिए प्रशंसा, कृतज्ञता, प्रत्युपकार, श्रद्धा, सहायता एवं सम्मान के भाव बढ़ते हैं। इसके अतिरिक्त यह सद्गुण स्वयं इतने मधुर होते हैं कि जिस हृदय में, इनका निवास होगा, वहाँ आत्म-संतोष की शीतल निर्झरिणी सदा बहती रहेगी। ऐसे लोग चाहे जीवित अवस्था में हों, चाहे मृत अवस्था में सदा स्वर्गीय सुख का आस्वादन करते रहेंगे।

गायत्री साधना से मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के चतुष्टय में असाधारण हेर-फेर होता है। विवेक, दूरदर्शिता, तत्त्वज्ञान और ऋतंभरा बुद्धि के विशेष रूप से उत्पन्न होने के कारण अनेक अज्ञानजन्य दुःखों का निवारण हो जाता है। प्रारब्धवश, विपरीत, कष्टसाध्य परिस्थितियाँ हर एक के जीवन में आती रहती हैं। हानि, शोक, वियोग, आपत्ति, रोग, आक्रमण, विरोध, आघात आदि की विपन्न परिस्थितियों में जहाँ साधारण मनोभूमि में लोग मृत्यु तुल्य मानसिक कष्ट पाते हैं, वहाँ आत्मबल सम्पन्न गायत्री साधक अपने विवेक, ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा, धैर्य, संतोष और ईश्वर विश्वास के आधार पर इन कठिनाइयों को हँसते-हँसते आसानी से काट लेता है। बुरी अथवा साधारण परिस्थितियों में भी अपने आनंद का मार्ग ढूँढ़ निकालता है और मस्ती, प्रसन्नता एवं निराकुलता का जीवन बिताता है।

संसार में समस्त दुःखों के कारण हैं- (१)अज्ञान, (२) अशक्ति और (३)अभाव। अंतःकरण में सतोगुण बढऩे से इन तीनों का ही निवारण होता है। सद्ज्ञान के बढऩे से दुरूखदायी भ्रान्त धारणाएँ, कल्पनाएँ और इच्छाएँ समाप्त होकर सद्गुण बढ़ते हैं। इन गुणों के कारण आहार-विहार एवं जीवन-क्रम संयमपूर्ण एवं सुव्यवस्थित हो जाता है। फलस्वरूप, शारीरिक और मानसिक शक्तियाँ बढ़ती हैं। स्वस्थता, स्वच्छता और सुरक्षा रहती है। लोगों का सहयोग बढ़ता है। योग्यताएँ बढऩे, आवश्यकताएँ संयमित होने और व्यवस्था शक्ति तीक्ष्ण होने से साधारण आर्थिक स्थिति में भी कोई अभाव नहीं रहता। उसे सब दिशाओं में अपना भंडार भरा-भरा ही दिखाई पड़ता है। जैसे उत्तम भूमि में उगे हुए पौधे के सभी अंग-प्रत्यंग परिपुष्ट और सुविकसित रहते हैं, वैसे ही गायत्री भूमिका से संबंधित मनुष्य का मानसिक, शारीरिक एवं सांसारिक जीवन सदा शांत, स्वस्थ एवं समृद्ध बना रहता है।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल नैनीताल से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी  हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
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