गुरु पूर्णिमा को अनुशासन पर्व भी कहा जाता है। सामान्य रूप से भी सिखाने वाले गुरुजनों का अनुशासन स्वीकार किये बिना कुशलता में निखार नहीं आ सकता। जहाँ यह आवश्यक है कि गुरुजनों को अपना क्रम ऐसा बनाकर रखना चाहिए कि शिष्य वर्ग में उनके प्रति सहज श्रद्धा-सम्मान का भाव जागे, वहाँ यह भी आवश्यक है कि सीखने वाले, शिष्यभाव रखें, गुरुजनों का सम्मान और अनुशासन बनाये रखें। इस दृष्टि से यह पर्व गुरु-शिष्य दोनों वर्गों के लिए अनुशासन का संदेश लेकर आता है, इसलिए अनुशासन पर्व कहा जाता है। अनुशासन मानने वाला ही शासन करता है, यह तथ्य समझे बिना राष्ट्रीय या आत्मिक प्रगति संभव नहीं है।
गुरुपूर्णिमा पर व्यास पूजन का भी क्रम रहता है। जो स्वयं चरित्रवान हैं और वाणी एवं लेखनी से प्रेरणा संचार करने की कला भी जानते हैं, ऐसे आदर्शनिष्ठ विद्वान को व्यास की संज्ञा दी जाती है। गुरु व्यास भी होता है। इसलिए गुरु-पूजा को व्यास पूजा भी कहते हैं। वैसे महर्षि व्यास अपने आप में महान परम्परा के प्रतीक हैं। आदर्श के लिए समर्पित प्रतिभा के वे उत्कृष्ट उदाहरण हैं। लेखक, कलाकार वक्ता अपनी लेखनी, तूलिका एवं वाणी द्वारा भाव सृजन की क्षमता रखने वाले यदि व्यासजी का अनुसरण करने लगें, तो लोक कल्याण का आधा रास्ता तो पार हुआ माना ही जा सकता है, यह भी एक अनुशासन है। आध्यात्मिक स्तर पर गुरु-शिष्य के सम्बन्धों में तो अनुशासन और भी गहरा एवं अनिवार्य हो जाता है। गुरु शिष्य को अपने पुण्य, प्राण और तप का एक अंश देता है। वह अंश पाने की पात्रता, धारण करने की सामर्थ्य और विकास एवं उपयोग की कला एक सुनिश्चित अनुशासन के अंतर्गत ही संभव है। वह तभी निभता है, जब शिष्य में गुरु के प्रति गहन श्रद्धा-विश्वास तथा गुरु में शिष्य वर्ग की प्रगति के लिए स्नेह भरी लगन जैसे दिव्य भाव हों। गुरु पूर्णिमा पर्व गुरु शिष्य के बीच ऐसे ही पवित्र, गूढ़-अंतरंग सूत्रों की स्थापना और उन्हें दृढ़ करने के लिए आता है। गुरु पूर्णिमा पर्व पर निम्रांकित तथ्य गुरु-शिष्य परम्परा के अनुयायियों के लिए स्मरणीय, चिंतनीय एवं अनुकरणीय हैं-
’गुरु व्यक्ति रूप में पहचाना जा सकता है; पर व्यक्ति की परिधि में सीमित नहीं होता। जो शरीर तक सीमित है, चेतना रूप में स्वयं को विकसित नहीं कर सका, वह अपना अंश शिष्य को दे नहीं सकता। जो इस विद्या का मर्मी नहीं, वह गुरु नहीं और जो शिष्य गुरु को शरीर से परे शक्ति-सिद्धान्त रूप में पहचान-स्वीकार नहीं कर सका, वह शिष्य नहीं।
’ गुरु शिष्य पर अनुशासन दृष्टि रखता है और शिष्य गुरु से निरन्तर निर्देश पाता, उन्हें मानता-अपनाता रहता है। यह चिंतन स्तर पर, वाणी द्वारा एवं लिखने-पढऩे के स्तरों पर संभव है। जिनके बीच इस प्रकार के सूत्र स्थापित नहीं, उनका संबंध चिह्न-पूजा मात्र कहा जाने योग्य है और गुरु-शिष्य का अंध-बधिर का जोड़ा बनकर रह जाता है।
’ भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य का संबंध दाता-भिखारी जैसा नहीं, सहयोगी-साझेदारी स्तर का बनाया जाता है। गुरु शिष्य को अपनी दिव्य संपदा का-कमाई का एक अंश देता रहता है। जो अनुशासनपूर्वक प्रयुक्त किया जाकर शिष्य के व्यक्तित्व को ऊँचा उठाता है। उठे हुए व्यक्तित्व के द्वारा शिष्य भी लौकिक-पारलौकिक कमाई करता है।
’इसी प्रकार शिष्य अपनी कमाई, श्रद्धा, पुरुषार्थ, प्रभाव एवं सम्पदा का एक अंश गुरु को समर्पित करता रहता है। इनके उचित उपयोग से गुरु का लोकमंगल अभियान विकसित होता है और उसका लाभ अधिक व्यापक क्षेत्र तक पहुँचने लगता है, इससे गुरु की पुण्य-सम्पदा बढ़ती है और उसका अधिकांश भाग शिष्यों के हिस्से में आने लगता है। जहाँ इस प्रकार की दिव्य साझेदारी नहीं, वहाँ गुरु-शिष्य संबंध अपनी संस्कृति में वर्णित असामान्य उपलब्धियाँ पैदा नहीं कर सकते।
’ जहाँ गुरु अपने स्नेह-तप से शिष्य का निर्माण-विकास कर सकता है, वहाँ शिष्य को भी अपनी श्रद्धा-तपश्चर्या से गुरु का निर्माण एवं विकास करना होता है। इतिहास साक्षी है कि जिन शिष्यों ने अपनी श्रद्धा-संयोग से गुरु का निर्माण किया, उनको ही चमत्कारी लाभ मिले। द्रोणाचार्य कौरवों के लिए सामान्य वेतन भोगी शिक्षक से अधिक कुछ न बन सके। पाण्डवों के लिए अजेय विद्या के स्रोत बने। एकलव्य के लिए एक अद्भुत चमत्कार बन गये, अंतर था-श्रद्धा-संयोग से बने गुरु तत्त्व का।
रामकृष्ण परमहंस जन सामान्य को बाबाजी से अधिक कुछ लाभ न दे सके; किन्तु जिसने अपनी श्रद्धा से उन्हें गुरु रूप में विकसित कर लिया, उनके लिए अवतार तुल्य सिद्ध हुए।
अस्तु, शिष्यों को अपनी श्रद्धा, तपश्चर्या, साधना द्वारा सशक्त गुरु निर्माण का प्रयास जारी रखना चाहिए, गुरुपर्व यही अवसर लेकर आता है।
-गौरीशंकर शर्मा
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