माना जाता है कि विधाता ही मात्र निर्माता है। ईश्वर की इच्छा के बिना पत्ता नहीं हिलता। दोनों प्रतिपादनों से भ्रमग्रस्त न होना हो, तो उसके साथ ही इतना और जोडऩा चाहिए कि उस विधाता या ईश्वर से मिलने-निवेदन करने का सबसे निकटवर्ती स्थान अपना अंतःकरण ही है। यों ईश्वर सर्वव्यापी है और उसे कहीं भी अवस्थित माना, देखा जा सकता है; पर यदि दूरवर्ती भाग-दौड़ करने से बचना हो और कस्तूरी वाले मृग की तरह निरर्थक न भटकना हो, तो अपना ही अंतःकरण टटोलना चाहिए। उसी पर्दे के पीछे बैठे परमात्मा को जी भरकर देखने की, हृदय खोलकर मिलने-लिपटने की अभिलाषा सहज ही पूरी कर लेनी चाहिए। भावुकता भडक़ाने या काल्पनिक उड़ानें-उडऩे से बात कुछ बनती नहीं।
ईश्वर जड़ नहीं, चेतन है। उसे प्रतिमाओं तक सीमित नहीं किया जा सकता है। चेतना वस्तुतः चेतना के साथ ही, दूध पानी की तरह घुल-मिल सकती है। मानवीय अंतःकरण ही ईश्वर का सबसे निकटवर्ती और सुनिश्चित स्थान हो सकता है। ईश्वर दर्शन, साक्षात्कार, प्रभु सान्निध्य जैसी उच्च स्थिति का रसास्वादन जिन्हें वस्तुततः करना हो, उन्हें बाहरी दुनिया की ओर से आँखें बंद करके अपने ही अंतराल में प्रवेश करना चाहिए और देखना चाहिए कि जिसको पाने, देखने के लिए अत्यंत कष्ट-साध्य और श्रम-साध्य प्रयत्न किये जा रहे थे, वह तो अत्यंत ही निकटवर्ती स्थान पर विराजमान-विद्यमान है। सरलता को कठिन बनाकर रख लेना, यह शीर्षासन लगाना भी तो मनुष्य की इच्छा और चेष्टा पर निर्भर है। अंतराल में रहने वाला परमेश्वर ही वस्तुततः उस क्षमता से सम्पन्न है, जिससे अभीष्ट वरदान पाना और निहाल बन सकना संभव हो सकता है। बाहर के लोग या देवता, या तो अंतःस्थित चेतना का स्मरण दिला सकते हैं अथवा किसी प्रकार मन को बहलाने के माध्यम बन सकते हैं।
मंदिर बनाने के लिए अतिशय व्याकुल किसी भक्त जन ने किसी सूफी संत से मंदिर की रूपरेखा बना देने के लिए अनुरोध किया। उन्होंने अत्यंत गंभीरता से कहा- इमारत अपनी इच्छानुरूप कारीगरों की सलाह से बजट के अनुरूप बना लो; पर एक बात मेरी मानो, उसमें प्रतिमा के स्थान पर एक विशालकाय दर्पण ही प्रतिष्ठित करना, ताकि उसमें अपनी छवि देखकर दर्शकों को इस वास्तविकता का बोध हो सके कि या तो ईश्वर का निवास, उसके लिए विशेष रूप से बने, इसी काय-कलेवर के भीतर विद्यमान है अथवा फिर यह समझे कि आत्म-सत्ता को यदि परिष्कृत किया जाय, तो वही परमात्म सत्ता में विकसित हो सकती है। इतना ही नहीं वही परिष्कृत आत्म-सत्ता, पात्रता के अनुरूप दिव्य वरदानों की अनवरत वर्षा भी करती रह सकती है।
भक्त को कुछ का कुछ सुझाने वाली सस्ती भावुकता से छुटकारा मिला। उसने एक बड़ा हाल बनाकर सचमुच ही ऐसे स्थान पर एक बड़ा दर्पण प्रतिष्ठित कर दिया, जिसे देखकर दर्शक अपने भीतर के भगवान को देखने और उसे निखारने, उबारने का प्रयत्न करते रह सकें।
मनःशास्त्र के विज्ञानी कहते हैं कि मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। मनुष्य जैसा सोचता है, वैसा ही करता है एवं वैसा ही बन जाता है। किए हुए भले-बुरे कर्म ही संकट एवं सौभाग्य बनकर सामने आते हैं। उन्हीं के आधार पर रोने-हँसने का संयोग आ धमकता है। इसलिए परिस्थितियों की अनुकूलता और बाहरी सहायता प्राप्त करने की फिराक में फिरने की अपेक्षा, यह हजार दर्जे अच्छा है कि भावना, मान्यता, आकांक्षा, विचारणा और गतिविधियों को परिष्कृत किया जाय। नया साहस जुटाकर, नया कार्यक्रम बनाकर प्रयत्नरत हुआ जाय और अपने बोए हुए को काटने के सुनिश्चित तथ्य पर विश्वास किया जाय। बिना भटकाव का, यही एक सुनिश्चित मार्ग है।
अध्यात्मवेत्ता भी प्रकारान्तर से इसी प्रतिपादन पर तर्क, तथ्य, प्रमाण और उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि मनुष्य अपने स्वरूप को, सत्ता एवं महत्ता को, लक्ष्य एवं मार्ग को भूलकर ही आये दिन असंख्य विपत्तियों में फँसता है। यदि अपने को सुधार ले, तो अपना सुधरा हुआ प्रतिबिम्ब ही व्यक्तियों और परिस्थितियों में झलकता, चमकता दिखाई पडऩे लगेगा। यह संसार गुम्बद की तरह अपने ही उच्चारण को प्रतिध्वनित करता है। अपने जैसे लोगों का ही जमघट साथ में जुड़ जाता है और भली-बुरी अभिरुचि को अधिकाधिक उत्तेजित करने में सहायक बनता है। दुष्ट-दुर्जनों के इर्द-गिर्द ठीक उसी स्तर की मंडली मंडल बनाने लगती है। साथ ही यह भी उतना ही सुनिश्चित है कि शालीनता सम्पन्नों को, सज्जनों को, उच्चस्तरीय प्रतिभाओं के साथ जुडऩे और महत्त्वपूर्ण सहयोग प्राप्त कर सकने का समुचित लाभ मिलता है।
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल नैनीताल से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
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