प्रकृति के नियमानुसार बचपन के बाद जवानी और जवानी के बाद बुढ़ापा आना निश्चित होता है। जैसी लालिमा सूर्य के उदय के समय रहती है, वैसी ही अस्त होने के समय भी हो जाती है। बचपन अंकुर की तरह है, जो आरंभ में दुर्बल होता है; पर धीरे-धीरे बढ़ता और मजबूत होता जाता है। युवावस्था में आकर वह मध्याह्न के तपते हुए सूर्य की तरह होता है। धीरे-धीरे ढलान की स्थिति आती है। ठीक वैसी ही डूबते हुए सूर्य की भी होती है। मनुष्य भी समयानुसार बूढ़ा हो जाता है, साथ ही कमजोर भी। वह शारीरिक दृष्टि से उतना काम नहीं कर सकता है, जितना जवानी में कर लिया करता था।
बुढ़ापा में इसीलिए विश्राम करने की सलाह दी जाती है। सरकारी नौकरी वालों को सेवानिवृत्त किया जाता है तथा घरेलू व्यवसाय में लडक़े बड़े हो जाने पर काम-धाम को उत्साहपूर्वक सँभालते हैं। चाहे वह वृद्धों को आराम देने की दृष्टि से हो या अपने अधिकार को मजबूत करने की दृष्टि से हो। वयोवृद्धों का हस्तक्षेप वे पसंद नहीं करते, उन्हें भजन, पूजा-पाठ की सलाह देकर रास्ते से हटा देते हैं। बुढ़ापा ऐसा खराब समय है, जिसमें आदमी खुद तो कुछ कमा नहीं पाता, प्रत्युत जो संग्रह किया था, वह भी दूसरों के हाथ में चला जाता है। जिस प्रकार बच्चों को किसी भी वस्तु के लिए बड़ों का मुँह ताकना पड़ता है, ठीक उसी तरह से वृद्ध भी जवानों पर आश्रित हो जाते हैं।
वृद्धाओं का हाल तो इससे भी बुरा होता है, जिस घर को उन्होंने बनाया, सँजोया था, अब वह बहुओं के हाथ में चला जाता है। इसमें हस्तक्षेप करने की स्थिति नहीं होती है। पुरानी और नयी संस्कृतियों का तालमेल नहीं बैठ पाता है। वे अपने ढंग से घर चलाती रहती हैं। नये प्रचलन उन्हें सुहाते नहीं, और पुरानी परंपराओं को नये लोग अपनाते नहीं। ऐसी दशा में वे मन ही मन खीझती रहती हैं और अपने को असहाय अनुभव करती हैं। कभी वे सर्वेसर्वा थीं, पर अब वे भार बनकर रह रही हैं। इनके शीघ्र ही मरने की कामना की जाती है। यही कारण है कि उनको बुढ़ापा भार लगता है। जवानी में तो पत्नी सुख, पैसा कमाना, यार-दोस्त, शौक, मौज-मस्ती जैसी खुशियों से भरी हुई दशा होती है। पत्नी को सजाने, बच्चों को पढ़ाने, मकान बनाने आदि कार्यों से अहंकार की पूर्ति होती रहती है। जवानी के दिन तो खेलते-खाते गुजर जाता है, परन्तु बुढ़ापे में एक-एक दिन पहाड़ जैसा काटना पड़ता है।
बुढ़ापे की कई समस्याओं का समाधान यह है कि नौकरी या कृषि व्यवसाय से निवृत्त होते ही वानप्रस्थ का नया जीवन अपनाया जाय। संभव हो तो समाज के ऋण से उऋण होने के लिए घर से बाहर कहीं निवास की व्यवस्था बनायी जाए। समाज सुधार के कार्यक्रम तथा लोकमंगल के कार्यक्रमों को अपनाकर पुण्यप्रद कार्य में जुट जाना चाहिए। दहेज, ऊँच-नीच की भावना का उन्मूलन, नशा निवारण जैसे कार्य हाथ में लेकर समाज सेवा की जा सकती है। सामूहिक श्रमदान की मण्डली भी गठित करके वृक्षारोपण, स्वच्छता अभियान जैसे कितने ही उपयोगी कार्यों का सूत्र संचालन किया जा सकता है। बुढ़ापे के लिए इससे अच्छा और शानदार कार्य कोई दूसरा नहीं हो सकता।
-डॉ. प्रणव पण्ड्या
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