पूजा पाठ के समस्त उपचारों का एक मात्र लक्ष्य उत्कृष्टता सम्पादन ही है । परब्रह्म को किसी उपहार-मनुहार के सहारे फुसलाया नहीं जा सकता । उसने नियति क्रम, जड़, चेतन सभी को बाँधा है और स्वयं भी बँध गया है । प्रशंसा के बदले अनुग्रह और निन्दा के बदले प्रतिशोध लेने पर यदि भगवान उतर पड़े तो समझना चाहिए कि व्यवस्थापरक अनुबन्ध समाप्त हो गए और सर्वतोन्मुखी अराजकता का उपक्रम चल पड़ा । पर ऐसा होता नहीं है । लोगों का भ्रम है जो सृष्टा को फुसलाने और नियति क्रम का उल्लंघन करने वाले अनुदान इसलिए माँगते हैं कि वे पूजा करने के कारण पक्षपात के अधिकारी हैं । यह बाल बुद्धि जितनी जल्दी हट सके उतना ही अच्छा हैं ।
पूजा उपचार का तात्पर्य चेतना संस्थान को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढालने का प्रभावी व्यायाम पराक्रम प्रशिक्षण मात्र है । इस प्रकार से या उस प्रकार से, जो अपने चेतना क्षेत्र को जितना समुन्नत बना सकेगा, वह उतना ही ऊँचा उठेगा, आगे बढ़ेगा और देवत्व के क्षेत्र में प्रवेश पाने का अधिकारी बनेगा । उपासना का उद्देश्य है - आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देना । आत्मा-अर्थात् अन्तःकरण, भाव संस्थान, जिसके साथ मान्यताएँ, आकांक्षाएँ लिपटी रहती हैं । परमात्मा-अर्थात् उत्कृष्ट आदर्शवादिता । स्मरण रहे, परमात्मा कोई व्यक्ति विशेष नहीं, सृष्टि में जितना भी देव पक्ष है उसके समुच्यय को, आत्माओं के समष्टि समुदाय को, परमात्मा कहते हैं ।
जीवन देवता की साधना - आराधना (2)-3.55
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें