व्यक्तित्व निर्माण के कार्यक्रम की तुलना कृषक द्वारा किए जाने वाले कृषि कर्म से की जा सकती है । जैसे जुताई, बुआई, सिंचाई और विक्रय की चतुर्विधि प्रक्रिया सम्पन्न करने के बाद किसान को अपने परिश्रम का लाभ मिलता है, व्यक्तित्व निर्माण को भी इस प्रकार जीवन साधना की चतुर्विधी प्रक्रिया सम्पन्न करनी पड़ती है, यह है आत्म-चिंतन, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास । मनन और चिंतन को इन चारों चरणों का अविच्छिन्न अंग माना गया है । इन चतुर्विधि साधनों को एक-एक करके नहीं, समन्वित रूप से ही अपनाया जाना चाहिए ।
आत्म-चितंन अर्थात् जीवन विकास में बाधक अवांछनीयताओं को ढूँढ़ निकालना । इसके लिए आत्म समीक्षा करनी पड़ती है । जिस प्रकार प्रयोगशालाओं मे पदार्थों का विश्लेषण, वर्गीकरण होता है और देखा जाता है कि इस संरचना में कौन-कौन से तत्व मिले हुए हैं । रोगी की स्थिति जानने के लिए उसके मल, मूत्र, ताप, रक्त, धड़कन आदि की जाँच-पड़ताल की जाती है और निदान करने के बाद ही सही उपचार बन पड़ता है । आत्म-चितंन, आत्म-समीक्षा का भी यह क्रम है ।
इसके लिये अपने आप से प्रश्न पूछने और उनके सही उत्तर ढूँढ़ने की चेष्टा की जानी चाहिए । हम जिन दुष्प्रवृतियों के लिए दूसरों की निन्दा करते हैं उनमें से कोई अपने स्वभाव में तो सम्मिलित नहीं है । जिन बातों के कारण हम दूसरों से घृणा करते हैं, वे बातें अपने में तो नहीं हैं ? जैसा व्यवहार हम दूसरों से अपने लिए नहीं चाहते है, वैसा व्यवहार हम ही दूसरों के साथ तो नहीं करते ? जैसे उपदेश हम आये दिन दूसरों को करते हैं, उनके अनुरूप हमारा आचरण है भी अथवा नहीं ? जैसी प्रशंसा और प्रतिष्ठा हम चाहते हैं, वैसी विशेषताएँ हममें हैं या नहीं ? इस तरह का सूक्ष्म आत्म-निरीक्षण स्वयं व्यक्ति को करना चाहिए और अपनी कमियों को ढूँढ़ निकालना चाहिए ।
आत्म-सुधार, अर्थात् कुसंस्कारों को परास्त करना । अपने स्वभाव में सम्मिलित दुष्प्रवृत्तियाँ अभ्यास होने के कारण कुसंस्कार बन जाती हैं और व्यवहार में उभर-उभर कर आने लगती हैं । आत्म-सुधार प्रक्रिया के अन्तर्गत इसके लिए अभ्यास और विचार-संघर्ष के दो मोर्चे तैयार करने चाहिए । अभ्यस्त कुसंस्कारों की आदत तोड़ने के लिए बाह्य क्रिया-कलापों पर नियंत्रण और उनकी जड़ें उखाड़ने के लिए विचार-संघर्ष की पृष्ठभूमि बनानी चाहिए । बुरी आदतें भूतकाल में किया गया अभ्यास ही हैं इस अभ्यास को अभ्यास बना कर तोड़ा जाए और कुसंस्कार सुसंस्कार निर्माण द्वारा नष्ट किये जायें । जैसे थल सेना से थल सेना ही लड़ती है और नभ सेना से लड़ने के लिए नभ सेना ही भेजी जाती है ।
जो भी बुरी आदतें जब उभरें उसी से संघर्ष किया जाए । बुरी आदतें जब उभरने के लिए मचल रहीं हों तो उनके स्थान पर उचित सत्कर्म ही करने का आग्रह खड़ा किया जाए और मनोबलपूर्वक अनुचित को दबाने तथा उचित को अपनाने का साहस किया जाय । मनोबल यदि दुर्बल होगा तो ही हारना पड़ेगा अन्यथा सत्साहस जुटा लेने पर तो श्रेष्ठ की स्थापना में सफलता ही मिलती है। इसके लिए छोटी बुरी आदतों से लड़ाई आरम्भ करनी चाहिए । उन्हें जब हरा दिया जायेगा तो अधिक पुरानी और अधिक बड़ी दुष्प्रवृत्तियों को परास्त करने योग्य मनोबल भी जुटने लगेगा।
आत्म-निर्माण अर्थात् जो सत्प्रवृतियाँ अभी अपने स्वभाव में नहीं हैं उनका योजनाबद्ध विकास करना । दुर्गणों को निरस्त कर दिया गया, उचित ही है पर व्यक्तित्व को उज्ज्वल बनाने के लिए, आत्म-विकास की अगली सीढ़ी चढ़ने के लिये सद्गुणों की सम्पदा एकत्रित करना भी अत्यन्त आवश्यक है। बर्तन का छेद बन्द कर देना काफी नहीं है, जिस उद्देश्य के लिये बर्तन खरीदा गया है वह भी तो पूरा करना चाहिये । खेत में से कँटीली झाड़ियाँ, पुरानी फसल की सूखी जड़ें उखाड़ दी गई, पर इसी से तो खेती का उद्देश्य पूरा नहीं हो गया, यह कार्य तो अधूरा है । शेष आधी बात जब बनेगी तब उस भूमि पर सुरम्य उद्यान लगाया जाय और उसे पाल-पोसकर बड़ा किया जाए ।
अपने व्यक्तित्व का विकास उत्कृष्ठ चिन्तन और आदर्श कर्तव्य अपनाये रहने पर ही निर्भर है । उस साधना में चंचल मन और अस्थिर बुद्धि से काम नहीं चलता, इसमें तो संकल्पनिष्ठ, धैर्यवान और सतत प्रयत्नशील रहने वाले व्यक्ति ही सफल हो सकते है । अपना लक्ष्य यदि आदर्श मनुष्य बनना है तो इसके लिए व्यक्तित्व में आदर्श गुणों और उत्कृष्ट विशेषताओं का अभिवर्धन करना ही पड़ेगा ।
आत्म-विकास अर्थात् अपने आत्म-भाव की परिधि को अधिकाधिक विस्तृत क्षेत्र में विकसित करते रहना । यदि हम अपनी स्थिति को देखें तो प्रतीत होगा कि शरीर और परिवार का उचित निर्वाह करते हुए भी हमारे पास पर्याप्त समय और श्रम बचा रहता है कि उससे परमार्थ प्रयोजनों की भूमिका निबाही जाती रह सके । आत्मीयता का विस्तार किया जाय तो सभी कोई अपने शरीर और कुटुम्बियों की तरह अपनेपन की भाव श्रृंखला में बँध जाते हैं और सबका दुःख अपना दुःख तथा सबका सुख अपना सुख लगने लगता है । जो व्यवहार, सहयोग हम दूसरों से अपने लिए पाने की आकांक्षा करते हैं, फिर उसे दूसरों के लिए देने की भावना भी उमगने लगती है, लोक-मंगल और जन-कल्याण की, सेवा साधना की इच्छाएँ जगती हैं तथा उसकी योजनाएँ बनने लगती हैं । इस स्थिति में पहुँचा ,व्यक्ति सीमित न रहकर असीम बन जाता है और उसका कार्य क्षेत्र भी व्यापक परिधि में सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धक बन जाता है ।
संसार के इतिहास में जिन महामानवों का उज्ज्वल चरित्र जगमगा रहा है, वे आत्म-विकास के इसी मार्ग का अवलम्बन लेते हुए महानता के उच्च शिखर तक पहुँच सके हैं । चारों दिशाओं की तरह आत्मिक उत्कर्ष के चार आधार यही हैं ।
जीवन देवता की साधना - आराधना (2)-2.8
Writer : Pt Shriram Sharma Acharya
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