1) शिष्य का पहला और अनिवार्य कर्तव्य हैं कि वह अपने गुरुदेव के आदर्श को सदा अपने सम्मुख रखे।
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2) विषय भव बन्धन हैं। जीवात्मा को वे ही बाँधते हैं । इन विषयों से छुटकारा पाने की पहली मन्जिल हैं-उपवास।
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3) विषय, व्यसनो और विलासों में सुख खोजना और पाने की आशा करना भयानक दुराशा है।
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4) शिष्टता और शालीनता सद्व्यवहार के प्राण है।
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5) शिक्षक राष्ट्रमन्दिर के कुशल शिल्पी हैं। शिक्षार्थी अनगढ मिट्टी के समान हैं। विद्यालय इनको मजबूत ईटों में ढालने वाली कार्यशाला है। शिक्षा वह विधा हैं, जिनसे इनको ढाला और राष्ट्रमन्दिर को गढा जाता है। नैतिकता एवं मानवीय मूल्य ही वह भाग हैं ,जिससे इन कच्ची ईटों को मजबूती व सौन्दर्य प्राप्त होता हैं, अन्यथा इसके अभाव में गढाई की सुन्दरता के बाद भी कच्चापन अवश्यम्भावी है।
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6) शिक्षक वह हैं, जो छात्रों को सिर्फ किताबी ज्ञान ही नहीं देता, बल्कि जीवन के संघर्ष में सफल होने का गुरुमन्त्र और रास्ता भी बताता है।
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7) शिक्षा की सार्थकता मनुष्य की स्वतन्त्र चेतना को कुसंस्कारो की मूर्छना से विरत करने में है।
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8) शिक्षा का निश्चित लक्ष्य हो - आज की शिक्षा की सबसे बडी खामी यह हैं कि इसके सामने अनुसरण करने के लिये कोई निश्चित लक्ष्य नहीं हैं। एक चित्रकार अथवा मूर्तिकार जानता हैं कि उसे क्या बनाना हैं तभी वह अपने कार्य में सफल हो पाता हैं । आज शिक्षक को यह स्पष्ट नही हैं वह किस लक्ष्य को लेकर अध्यापन कार्य कर रहा है। सभी प्रकार की शिक्षा का एक मात्र उद्धेश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करना हैं इसके लिये वेदान्त के दर्शन को ध्यान में रखते हुए मनुष्य निर्माण की शिक्षा प्रदान की जानी चाहिये।-स्वामी विवेकानन्द जी
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9) शिक्षा का सीधा अर्थ हैं-सुसंस्कारिता का प्रशिक्षण। इसे नैतिकता, सामाजिकता, सज्जनता, प्रामाणिकता आदि किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है।
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10) शिक्षा का उद्धेश्य व्यक्तित्व को ऊँचा उठाना हैं। मानव जाति को इस योग्य बनाना हैं कि परस्पर आत्मीयता का भाव विकसित हो सके।
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11) शिक्षा का अर्थ हैं उस पूर्णता को व्यक्त करना, जो सब मनुष्यो में पहले से विद्यमान है।
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12) शिक्षा से चरित्र निर्माण - शिक्षा और चरित्र निर्माण को बाँट कर नही देखा जा सकता हैं । यदि शिक्षा की निष्पत्ति चरित्र निर्माण या व्यक्तित्व निर्माण नहीं हैं तो वह सही नहीं हैं। उसमें कोई न कोई त्रुटि हैं। उस त्रुटि को पूरा करना शिक्षा से जुडे हुये लोगो का काम हैं। विद्यार्थी में बौद्धिक विकास के साथ-साथ अनुशासन, सहिष्णुता, ईमानदारी, दायित्वबोध, व्यापक दृष्टिकोण और व्यापक चिन्तन का विकास अवश्य होना चाहिये। आज ऐसा नहीं हो रहा हैं-आचार्य महाप्रज्ञ
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13) शिक्षा वही हैं, जो विवेक को जाग्रत कर सके। ढर्रे में घुसे हुए अनौचित्य को हिम्मत और निर्भयता के साथ स्वीकार कर सके।
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14) शिक्षा वही जो मानवीय अन्तःकरण में अच्छे संस्कारों को पल्लवित कर सके।
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15) थोडा पढे, अच्छा पढे, जो भी पढे आचरण में उतारे।
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16) थोडा पढना, अधिक सोचना, कम बोलना, अधिक सुनना यह बुद्धिमान बनने के उपाय है।
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17) शिफा तो दस्ते कुदरत में हैं, कौशिश हैं फकत मेरी। दवा देने से पहले में, दुआ भी मांग लेता हू।
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18) सिद्ध सरहपा के अनुसार ध्यान की सिद्धि को परखने के निम्न मानदण्ड बताये हैं।
(1) आहार संयम
(2) वाणी का संयम
(3) जागरुकता
(4) दौर्मनस्य (द्वेष) का न होना
(5) दुःख का अभाव
(6) श्वासों की संख्या में कमी हो जाना
(7) संवेदनशीलता ।
उक्त सात मानदण्डो से कोई भी साधक कभी भी अपने को जांच सकता हैं कि उसकी ध्यान-साधना कितनी परिपक्व और प्रगाढ हो रहीं है।
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19) सिक्के से वस्तु, वस्तु से व्यक्ति, व्यक्ति से विवेक तथा विवेक से सत्य को अधिक महत्त्व देना चाहिये।
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20) सिर पर बाँध कफन लडेंगे, दुष्प्रवर्तियों को दूर करेंगे।
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21) सिर अनीति को नहीं झुकाये, चाहे प्राण भले ही जाये।
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22) स्निग्ध पुष्प के समान विकसित होने वाले अनेक सद्गुण भय की एक ठेस पाकर क्षत-विक्षत हो जाते है।
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23) छिपाने से पाप और पुण्य दोनो अधिक फल देने वाले हो जाते है।
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24) दिवा स्वपन न देखों। बिना पंख के उडाने न भरो, वह करों जो आज की परिस्थिति में किया जा सकता है।
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