1) मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप हैं ।
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2) मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। ऐसे व्यक्ति जो पुरुषार्थ द्वारा अपने भविष्य को श्रेष्ठ व उत्तम बनाते हैं, सुगंधित चंदन के वृक्षों के समान अपनी सुरभि चारों ओर बिखेरते हैं, युग प्रर्वतक कहलाते हैं व मल्लाह बन कर अपनी नाव स्वयं खेते तथा ओरो को भी पार लगाते हैं। जब ऐसे व्यक्ति हो तो युग क्यों नहीं बदलेगा ? अवश्य बदलेगा।
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3) मनुष्य अपने आप में परिपूर्ण प्राणी है। उसके भीतर ईश्वर की सभी शक्तिया बीज रुप से विद्यमान है। साधना का तात्पर्य उन बीज तत्वों को प्रसुप्त स्थिति से जाग्रत कर सक्रिय एवं समर्थ बनाना हैं। श्रम और संयम से शरीर , स्वाध्याय और विवेक से मन, तथा प्रेम और सेवा से अन्तःकरण का विकास होता हैं।जीवन साधना के यह छः आधार ही व्यक्तित्व के उत्कर्ष में सहायक होते हैं जिस प्रकार काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद, मत्सर यह छः शत्रु माने गये हैं, उसी प्रकार अन्तरंग में अवस्थित यह छः मित्र भी ऐसे हैं कि यदि मनुष्य इनका समर्थन प्राप्त कर सके तो अपनी समस्त तुच्छताओं पर विजय प्राप्त कर सकता हैं। उपासना की दृष्टि से शरीर-क्षेत्र में जप, पूजन, व्रत, यात्रा, संयम, सदाचरण, दान, पुण्य, तप-साधना, आदि कर्म-काण्डो का और मन-क्षेत्र में ध्यान, चिन्तन, स्वाध्याय, सत्संग आदि का और अन्तःकरण क्षेत्र में भाव-तन्मयता, दृष्टि परिष्कार, समर्पण, समाधि, लय, वैराग्य आदि निष्ठाओं का अपना महत्व है।
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4) मनुष्य और कुछ नहीं, मात्र भटका हुआ देवता है।
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5) मनुष्य की एक विशेषता हैं-मलिनता से घृणा और स्वच्छता से प्रेम।
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6) मनुष्य का चरित्र जितना सुधरेगा, उतना ही भजन भी लाभदायक होगा अन्यथा गंदे नाले में आधी छटांक गंगाजल डालने की तरह वह भी निरर्थक हो जायेगा।
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7) मनुष्य के सारे मोक्ष-प्राप्ति के साधन बेकार ही सिद्ध होंगे, यदि उसने जीवन में सद्गुणों का विकास नहीं किया।
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8) मनुष्य हिंसा के सामने यदि थोड़ा नम्र हो जाए तो वह स्वयं झुक जाती है।
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9) मनुष्य सफलता से कुछ नहीं सीखता, विफलता से बहुत कुछ सीखता है।
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10) मनुष्य अपने गुणों से आगे बढ़ता हैं न कि दूसरों की कृपा से।
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11) मूर्ख स्वयं को बुद्धिमान समझते हैं, किन्तु वास्तविक बुद्धिमान स्वयं को मूर्ख ही समझते है।
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12) मूर्खता सब कर लेगी पर बुद्धि का आदर कभी नहीं करेगी।
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13) मूलतः मनुष्य आदर्शवादी हैं व उसे अंत में वही बनना ही होगा।
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14) शिष्य के हृदय में जब अपने सद्गुरु के प्रति नमन् के भाव उपजते रहते हैं, तब उसका सर्वत्र मंगल होता हैं उसे अमंगल की छाया स्पर्श भी नहीं कर सकती। सद्गुरु को नमन् शिष्य के लिए महाअभेद्य कवच हैं।
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15) शिष्य जब अपने आपे को सम्पूर्ण रुप से गुरु में विसर्जित कर देता हैं, तो वह महसूस करता है कि एक अज्ञात शक्ति निरंतर उसका सहयोग कर रही हैं, न सिर्फ भौतिक क्षेत्र में, वरन् आत्मिक प्रगति में भी समान रुप से।
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16) शिक्षा की सफलता इस बात में हैं कि शिक्षित व्यक्ति न केवल समुचित आजीविका ही उपार्जित करे, वरन् अपने पारिवारिक जीवन में स्वर्गीय वातावरण उत्पन्न करे। पत्नी के लिए देवता, बच्चों के लिए आचार्य, माता-पिता के लिए आधार-अवलम्बन बनकर रहे। शरीर से स्वस्थ और मन से परिपुष्ट प्रमाणित हो। हर किसी का प्रिय पात्र, विश्वासपात्र और श्रद्धापात्र बने। ऐसा प्रकाश वाला जीवन जिए, जिससे अनेको प्रेरणा प्राप्त करें-शिक्षा का यही वास्तविक उद्धेश्य हो सकता हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था इसी स्तर की होनी चाहिए।
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17) शिक्षा को बच्चों तक तथा इसकी उपयोगिता को आजीविका तक सीमित करने से ही इस देश में व्यापक जाग्रति की सम्भावनाए बहुत कुछ सिमट गयी हैं। शिक्षा के विस्तार के बिना प्रबल जन-जाग्रति असम्भव है।
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18) शिक्षक वर्ग के महान् पद की गरिमा उनके उत्कृष्ट चरित्र सम्पन्न व्यक्तित्व में है। यह पद आम सरकारी नौकरी करने वाले सरकारी कर्मचारी से कहीं ऊँचा हैं। खासतोर पर व्यक्तित्व गढने वाली शिक्षा में तो इसकी विशेष गरिमा है। , क्योंकि चरित्र निर्माण करने वाली शिक्षा मात्र शिक्षक के व्यक्तिगत जीवन के आदर्श द्वारा ही प्रस्तुत की जा सकती है।। जहा तक जानकारियों को देने का सवाल हैं, वह तो कोई अधिक जानकारी वाला व्यक्ति कम जानकारी वाले को दे सकता है। किन्तु चरित्र गढने वाली शिक्षा में जानकारी देने भर से काम नहीं चल सकता । उसमें खाली उपदेश निरर्थक सिद्ध होते हैं। जब तक प्रतिपादित आदर्श शिक्षक के जीवन में झलकते नहीं दिखते, तब तक यह विश्वास नहीं हो पाता कि ये सिद्धान्त व्यावहारिक भी हैं अथवा नहीं। ध्यान रहे, जलते हुए दीपक ही अपने निकटवर्ती बुझे हुए दीपों को प्रकाशवान बनाने में सफल हो सकते है।
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19) बिना विपत्ति की ठोकर लगे, विवेक की आँख नहीं खुलती।
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20) बिना भजन भोजन नहीं, बिना स्वाध्याय के शयन नही।
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21) बिना प्रशंसा किए किसी को प्रसन्न नहीं किया जा सकता और बिना असत्य भाषण किए किसी की प्रशंसा नहीं की जा सकती।
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22) बिना श्रम के अपनी आवश्यकता पूरी करना चोरी है।
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23) बिना संघर्ष प्रगति असम्भव है।
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24) बिगडी क्यों भारत की साख, भीख मांगते अस्सी लाख।
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