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2) मानव को विवेक का आश्रय लेना चाहिये। विवेक द्वारा मनुष्य दुर्गुणों से विमुख होकर सद्गुणो की ओर उन्मुख होता है।
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3) जिस इन्सान के अन्दर पाप बसा हुआ है, वहीं दूसरों के दोष देखता हैं।
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4) भीतरी दोषो को दूर करो।
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5) स्वयं के दुर्गुणों को चिन्तन व परमात्मा के उपकारों का स्मरण ही सच्ची प्रार्थना है।
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6) दोष बतलाने वाले का गुरु-तुल्य आदर करना चाहिये, जिससे भविष्य में उसे दोष बतलाने में उत्साह हो।
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7) दोष दृष्टि करने से मुफ्त में पाप हो जाता है।
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8) दुर्गुण त्यागो बनो उदार, यही मुक्ति सुरपुर का द्वार।
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9) दुर्गुण जीवन के लिये साक्षात् विष हैं। उनसे अपने को इस प्रकार बचाये रहना चाहिये, जैसे मॉ बच्चे को सर्तकता पूर्वक आग से बचाये रखती है।
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10) दूसरों के गुण और अपने अवगुण ढूँढो ।
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11) जो दूसरों के अवगुणो की चर्चा करता हैं वह अपने अवगुण प्रकट करता है।
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12) न अशुभ सोचें, न दोष ढूंढे, न अन्धकार में भटके।
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13) अपने दोष-दुर्गुण खोजें एवं उसे दूर करे।
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14) अपने दोषो की ओर से अनभिज्ञ रहने से बडा प्रमाद इस संसार में और कोई नहीं हो सकता।
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15) अपने दोषो को सुनकर चित्त में प्रसन्नता होनी चाहिये।
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16) अपने दोष ही अंतत: विनाशकारी सिद्ध होते है।
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17) अन्त:करण की पवित्रता दुर्गुणों को त्यागने से होती है।
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18) एक क्षण तक प्रज्वलित रहना अच्छा है, किन्तु सुदीर्घ काल तक धुआ छोडते रहना अच्छा नही है।
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