सोमवार, 11 जुलाई 2011

विद्या धन बाँटने से बढता है।


1) विषमताओं का यदि समुचित सदुपयोग किया जा सके तो जीवात्मा पर चढें हुए जन्म-जन्मांतर के कषाय-कल्मष धुलते है। प्रवृत्तियों का परिष्कार होता हैं - आंतरिक शक्तियों में निखार आता हैं । इसलिए जीवन में विषम क्षणों के उपस्थित होने पर इनसे घबराने की बजाय इनके सदुपयोग की कला सीखनी चाहिए।
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2) वियोग की व्यथा और श्रद्धा की प्रखरता का उभार जिस रचनात्मक मार्ग से प्रकट हो सके उसे श्राद्ध कहते है।
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3) विद्या धन बाँटने से बढता है।
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4) विद्या के समान संसार में कोई नेत्र नहीं है।
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5) विद्या उसे कहते हैं, जो सन्मार्ग पर चलाये और विनयशील बनाये।
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6) विद्या वही हैं जो (बन्धनो से) मुक्ति प्रदान कर दे।
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7) विद्या वही हैं जो सत्प्रवृत्तियों को उभार दे, सद्भावनाओ को समर्थ कर दे।
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8) विद्या, शूरता, चतुराई, बल, धीरज-ये पाँच स्वाभाविक मित्र है।
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9) विद्वान वे व्यक्ति हैं जो अपने ज्ञान के अनुसार आचरण करते है।
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10) विश्व हटकर उस व्यक्ति को राह देता हैं जो जानता हैं कि वह कहाँ जा रहा है।
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11) विकसित आत्मा को ही दूसरे शब्दो में परमात्मा कहा जाता है।
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12) विपत्ति में धीरज, सम्पत्ति में क्षमा, सभा में वाक्य चातुरी, युद्ध में पराक्रम, यश में प्रेम और शास्त्रों में लगन-ये सद्गुण महात्माओं में स्वाभाविक होते है।
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13) विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने आती है।
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14) विपत्ति मनुष्य को आत्म-साक्षात्कार का अवसर प्रदान करती है।
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15) विपत्ति तुम्हारे प्रेम की कसौटी है।
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16) विपरीत परिस्थितियों में भी जो ईमान, साहस और धैर्य को कायम रख सके, वस्तुतः वहीं सच्चा शूरवीर है।
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17) विश्राम परिश्रम की मधुर चटनी है।
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18) विश्राम और उपवास सर्वोत्तम औषधि है।
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19) विराट वृक्ष की शक्ति हमेशा छोटे से बीज में छिपी रहती है। यही बीज खेत में पडकर उपयोगी खाद-पानी पाकर विशालकाय छायादार वृक्ष के रुप में प्रस्फुटित हो जाता है। उसी तरह हम सबके भीतर भी समस्त संभावनाए एवं अनंत शक्तिया बीजरुप में छिपी हैं, जिनको विवेक के जल से अभिसिंचित कर श्रेष्ठ विचारों की उर्वरा खाद देकर जाग्रत किया जा सकता है। यदि हम अपने अंदर की अमूल्य शक्ति एवं सामर्थ्य को जान लेने में सफल हो जाए तो सहज ही महानता के शिखरों पर पहुच सकते है।
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20) विज्ञान बाहर की प्रगति हैं और ज्ञान अन्तः की अनुभूति है।
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21) विश्व प्रेम ही लोकतन्त्र हैं, अन्तर क्रान्ति महान् मन्त्र है।
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22) विवाह एक आध्यात्मिक साधना हैं। यह एक ऐसी प्रेम वल्लरी हैं जिसका अभिसिंचन त्याग और उत्सर्ग की उच्च भावना से किया जाता है।
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23) विवाह का वास्तविक अर्थ हैं-दो आत्माओ की पृथकता को समाप्त करके एक दूसरे के प्रति समर्पण।
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24) विवाह और मित्रता समान स्थिति वाले से करना चाहिये।

शिक्षा की सार्थकता

1) शिष्य का पहला और अनिवार्य कर्तव्य हैं कि वह अपने गुरुदेव के आदर्श को सदा अपने सम्मुख रखे।
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2)  विषय भव बन्धन हैं। जीवात्मा को वे ही बाँधते हैं । इन विषयों से छुटकारा पाने की पहली मन्जिल हैं-उपवास।
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3) विषय, व्यसनो और विलासों में सुख खोजना और पाने की आशा करना भयानक दुराशा है।
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4) शिष्टता और शालीनता सद्व्यवहार के प्राण है।
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5) शिक्षक राष्ट्रमन्दिर के कुशल शिल्पी हैं। शिक्षार्थी अनगढ मिट्टी के समान हैं। विद्यालय इनको मजबूत ईटों में ढालने वाली कार्यशाला है। शिक्षा वह विधा हैं, जिनसे इनको ढाला और राष्ट्रमन्दिर को गढा जाता है। नैतिकता एवं मानवीय मूल्य ही वह भाग हैं ,जिससे इन कच्ची ईटों को मजबूती व सौन्दर्य प्राप्त होता हैं, अन्यथा इसके अभाव में गढाई की सुन्दरता के बाद भी कच्चापन अवश्यम्भावी है।
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6) शिक्षक वह हैं, जो छात्रों को सिर्फ किताबी ज्ञान ही नहीं देता, बल्कि जीवन के संघर्ष में सफल होने का गुरुमन्त्र और रास्ता भी बताता है।
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7) शिक्षा की सार्थकता मनुष्य की स्वतन्त्र चेतना को कुसंस्कारो की मूर्छना से विरत करने में है।
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8) शिक्षा का निश्चित लक्ष्य हो - आज की शिक्षा की सबसे बडी खामी यह हैं कि इसके सामने अनुसरण करने के लिये कोई निश्चित लक्ष्य नहीं हैं। एक चित्रकार अथवा मूर्तिकार जानता हैं कि उसे क्या बनाना हैं तभी वह अपने कार्य में सफल हो पाता हैं । आज शिक्षक को यह स्पष्ट नही हैं वह किस लक्ष्य को लेकर अध्यापन कार्य कर रहा है। सभी प्रकार की शिक्षा का एक मात्र उद्धेश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करना हैं इसके लिये वेदान्त के दर्शन को ध्यान में रखते हुए मनुष्य निर्माण की शिक्षा प्रदान की जानी चाहिये।-स्वामी विवेकानन्द जी
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9) शिक्षा का सीधा अर्थ हैं-सुसंस्कारिता का प्रशिक्षण। इसे नैतिकता, सामाजिकता, सज्जनता, प्रामाणिकता आदि किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है।
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10) शिक्षा का उद्धेश्य व्यक्तित्व को ऊँचा उठाना हैं। मानव जाति को इस योग्य बनाना हैं कि परस्पर आत्मीयता का भाव विकसित हो सके।
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11) शिक्षा का अर्थ हैं उस पूर्णता को व्यक्त करना, जो सब मनुष्यो में पहले से विद्यमान है।
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12) शिक्षा से चरित्र निर्माण - शिक्षा और चरित्र निर्माण को बाँट कर नही देखा जा सकता हैं । यदि शिक्षा की निष्पत्ति चरित्र निर्माण या व्यक्तित्व निर्माण नहीं हैं तो वह सही नहीं हैं। उसमें कोई न कोई त्रुटि हैं। उस त्रुटि को पूरा करना शिक्षा से जुडे हुये लोगो का काम हैं। विद्यार्थी में बौद्धिक विकास के साथ-साथ अनुशासन, सहिष्णुता, ईमानदारी, दायित्वबोध, व्यापक दृष्टिकोण और व्यापक चिन्तन का विकास अवश्य होना चाहिये। आज ऐसा नहीं हो रहा हैं-आचार्य महाप्रज्ञ
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13) शिक्षा वही हैं, जो विवेक को जाग्रत कर सके। ढर्रे में घुसे हुए अनौचित्य को हिम्मत और निर्भयता के साथ स्वीकार कर सके।
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14) शिक्षा वही जो मानवीय अन्तःकरण में अच्छे संस्कारों को पल्लवित कर सके।
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15) थोडा पढे, अच्छा पढे, जो भी पढे आचरण में उतारे।
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16) थोडा पढना, अधिक सोचना, कम बोलना, अधिक सुनना यह बुद्धिमान बनने के उपाय है।
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17) शिफा तो दस्ते कुदरत में हैं, कौशिश हैं फकत मेरी। दवा देने से पहले में, दुआ भी मांग लेता हू।
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18) सिद्ध सरहपा के अनुसार ध्यान की सिद्धि को परखने के निम्न मानदण्ड बताये हैं। 
(1) आहार संयम 
(2) वाणी का संयम 
(3) जागरुकता 
(4) दौर्मनस्य (द्वेष) का न होना 
(5) दुःख का अभाव 
(6) श्वासों की संख्या में कमी हो जाना 
(7) संवेदनशीलता । 
उक्त सात मानदण्डो से कोई भी साधक कभी भी अपने को जांच सकता हैं कि उसकी ध्यान-साधना कितनी परिपक्व और प्रगाढ हो रहीं है।
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19) सिक्के से वस्तु, वस्तु से व्यक्ति, व्यक्ति से विवेक तथा विवेक से सत्य को अधिक महत्त्व देना चाहिये।
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20) सिर पर बाँध कफन लडेंगे, दुष्प्रवर्तियों को दूर करेंगे।
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21) सिर अनीति को नहीं झुकाये, चाहे प्राण भले ही जाये।
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22) स्निग्ध पुष्प के समान विकसित होने वाले अनेक सद्गुण भय की एक ठेस पाकर क्षत-विक्षत हो जाते है।
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23) छिपाने से पाप और पुण्य दोनो अधिक फल देने वाले हो जाते है।
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24) दिवा स्वपन न देखों। बिना पंख के उडाने न भरो, वह करों जो आज की परिस्थिति में किया जा सकता है।

किसी से घृणा न करो।

1) किया हुआ पुरुषार्थ ही देव का अनुसरण करता हैं, किन्तु पुरुषार्थ न करने पर देव किसी को कुछ नहीं दे सकता।
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2) किसी का बुरा होने से आप राजी होते हैं तो आपके मन में बुरा करने का भाव हैं-यह कसौटी है।
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3) किसी कार्य को खूबसूरती से करने के लिये मनुष्य को उसे स्वयं करना चाहिये।
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4) किसी को स्वावलम्बी बना देना ही उसकी वास्तविक सहायता है। 
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5) किसी के चरणों में सिर रखे तो कैसे रखे ? प्रीति से, विनय से। सिर झुकाना पर्याप्त नहीं हैं प्रीत होनी चाहिए। वचन में विनय हो, हृदय में प्रीत हो और कर्म में शीश झुका हुआ हों तभी घटना घटती है।
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6) किसी के अहित में कभी भी निमित्त मत बनो।
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7) किसी सिद्धान्त की सार्थकता उसकी व्याहारिक अनुभूति में है।
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8) किसी भी वस्तु की सुन्दरता आपके मूल्यांकन करने की योग्यता में छिपी है।
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9) किसी भी वेद, पुराण, बाइबिल, कुरान में रेगिस्तान नाम का शब्द नहीं मिलता हैं, यह सभ्य मानवों की देन है।
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10) किसी भी अवस्था में मन को व्यथित मत होने दो। याद रखो, परमात्मा के यहा कभी भूल नहीं होती और न उसका कोई विधान दया से रहित ही होता है।
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11) किसी सद्उद्धेश्य के लिये जीवन भर कठिनाइयों से जूझते रहना ही महापुरुष होना है।
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12) किसी से घृणा न करो।
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13) किसी से भी द्वेष हो तो समझे कि हमारी उपासना ठीक नहीं है।
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14) किसी व्यक्ति की महानता की परख यह हैं कि वह अपने से छोटो के लिये क्या सोचता हैं और क्या करता रहा ?
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15) किसी आदर्श के लिये हॅसते-हॅसते जीवन का उत्सर्ग कर देना सबसे बडी बहादुरी है।
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16) किसने कितना दान किया, यह मत देखिये, वरन् यह पूछिये कि किस प्रयोजन कि लिये किसके हाथ सौंपा।
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17) किवदंतिया वे ही बनते हैं, जो जीवन के प्रत्येक क्षण से सीखने की क्षमता रखते है।
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18) क्रिया काण्ड को सब कुछ मान बैठना और व्यक्तित्व के परिष्कार की, पात्रता की प्राप्ति पर ध्यान न देना, यही एक कारण हैं जिसके चलते उपासना-क्षेत्र में निराशा छाई और अध्यात्म को उपहासास्पद बनने-बदनाम होने का लांछन लगा।
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19) क्रिया में कुशलता ही योग है।
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20) क्रियाशील लोहा भी चांदी की तरह चमकने लगता है।
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21) मित्रता समान शील और स्वभाव वालों के बीच ही स्थिर रहती है।
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22) मिलता हैं उसको प्रभु प्यार, जो करता हैं आत्म सुधार।
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23) पिछला कदम उठाकर ही अगला बढाया जा सकता हैं। तुच्छ के छोडने पर ही गौरव पाया जा सकता है।
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24) प्रियवादी देवता कहलाते हैं और कटुवादी पशु।

मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप हैं ।

1) मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप हैं 
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2) मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। ऐसे व्यक्ति जो पुरुषार्थ द्वारा अपने भविष्य को श्रेष्ठ व उत्तम बनाते हैं, सुगंधित चंदन के वृक्षों के समान अपनी सुरभि चारों ओर बिखेरते हैं, युग प्रर्वतक कहलाते हैं व मल्लाह बन कर अपनी नाव स्वयं खेते तथा ओरो को भी पार लगाते हैं। जब ऐसे व्यक्ति हो तो युग क्यों नहीं बदलेगा ? अवश्य बदलेगा।
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3) मनुष्य अपने आप में परिपूर्ण प्राणी है। उसके भीतर ईश्वर की सभी शक्तिया बीज रुप से विद्यमान है। साधना का तात्पर्य उन बीज तत्वों को प्रसुप्त स्थिति से जाग्रत कर सक्रिय एवं समर्थ बनाना हैं। श्रम और संयम से शरीर , स्वाध्याय और विवेक से मन, तथा प्रेम और सेवा से अन्तःकरण का विकास होता हैं।जीवन साधना के यह छः आधार ही व्यक्तित्व के उत्कर्ष में सहायक होते हैं जिस प्रकार काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद, मत्सर यह छः शत्रु माने गये हैं, उसी प्रकार अन्तरंग में अवस्थित यह छः मित्र भी ऐसे हैं कि यदि मनुष्य इनका समर्थन प्राप्त कर सके तो अपनी समस्त तुच्छताओं पर विजय प्राप्त कर सकता हैं। उपासना की दृष्टि से शरीर-क्षेत्र में जप, पूजन, व्रत, यात्रा, संयम, सदाचरण, दान, पुण्य, तप-साधना, आदि कर्म-काण्डो का और मन-क्षेत्र में ध्यान, चिन्तन, स्वाध्याय, सत्संग आदि का और अन्तःकरण क्षेत्र में भाव-तन्मयता, दृष्टि परिष्कार, समर्पण, समाधि, लय, वैराग्य आदि निष्ठाओं का अपना महत्व है।
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4) मनुष्य और कुछ नहीं, मात्र भटका हुआ देवता है।
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5) मनुष्य की एक विशेषता हैं-मलिनता से घृणा और स्वच्छता से प्रेम।
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6) मनुष्य का चरित्र जितना सुधरेगा, उतना ही भजन भी लाभदायक होगा अन्यथा गंदे नाले में आधी छटांक गंगाजल डालने की तरह वह भी निरर्थक हो जायेगा।
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7) मनुष्य के सारे मोक्ष-प्राप्ति के साधन बेकार ही सिद्ध होंगे, यदि उसने जीवन में सद्गुणों का विकास नहीं किया।
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8) मनुष्य हिंसा के सामने यदि थोड़ा नम्र हो जाए तो वह स्वयं झुक जाती है।
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9) मनुष्य सफलता से कुछ नहीं सीखता, विफलता से बहुत कुछ सीखता है।
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10) मनुष्य अपने गुणों से आगे बढ़ता हैं न कि दूसरों की कृपा से।
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11) मूर्ख स्वयं को बुद्धिमान समझते हैं, किन्तु वास्तविक बुद्धिमान स्वयं को मूर्ख ही समझते है।
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12) मूर्खता सब कर लेगी पर बुद्धि का आदर कभी नहीं करेगी।
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13) मूलतः मनुष्य आदर्शवादी हैं व उसे अंत में वही बनना ही होगा।
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14) शिष्य के हृदय में जब अपने सद्गुरु के प्रति नमन् के भाव उपजते रहते हैं, तब उसका सर्वत्र मंगल होता हैं उसे अमंगल की छाया स्पर्श भी नहीं कर सकती। सद्गुरु को नमन् शिष्य के लिए महाअभेद्य कवच हैं।
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15) शिष्य जब अपने आपे को सम्पूर्ण रुप से गुरु में विसर्जित कर देता हैं, तो वह महसूस करता है कि एक अज्ञात शक्ति निरंतर उसका सहयोग कर रही हैं, न सिर्फ भौतिक क्षेत्र में, वरन् आत्मिक प्रगति में भी समान रुप से।
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16) शिक्षा की सफलता इस बात में हैं कि शिक्षित व्यक्ति न केवल समुचित आजीविका ही उपार्जित करे, वरन् अपने पारिवारिक जीवन में स्वर्गीय वातावरण उत्पन्न करे। पत्नी के लिए देवता, बच्चों के लिए आचार्य, माता-पिता के लिए आधार-अवलम्बन बनकर रहे। शरीर से स्वस्थ और मन से परिपुष्ट प्रमाणित हो। हर किसी का प्रिय पात्र, विश्वासपात्र और श्रद्धापात्र बने। ऐसा प्रकाश वाला जीवन जिए, जिससे अनेको प्रेरणा प्राप्त करें-शिक्षा का यही वास्तविक उद्धेश्य हो सकता हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था इसी स्तर की होनी चाहिए।
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17) शिक्षा को बच्चों तक तथा इसकी उपयोगिता को आजीविका तक सीमित करने से ही इस देश में व्यापक जाग्रति की सम्भावनाए बहुत कुछ सिमट गयी हैं। शिक्षा के विस्तार के बिना प्रबल जन-जाग्रति असम्भव है।
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18) शिक्षक वर्ग के महान् पद की गरिमा उनके उत्कृष्ट चरित्र सम्पन्न व्यक्तित्व में है। यह पद आम सरकारी नौकरी करने वाले सरकारी कर्मचारी से कहीं ऊँचा हैं। खासतोर पर व्यक्तित्व गढने वाली शिक्षा में तो इसकी विशेष गरिमा है। , क्योंकि चरित्र निर्माण करने वाली शिक्षा मात्र शिक्षक के व्यक्तिगत जीवन के आदर्श द्वारा ही प्रस्तुत की जा सकती है।। जहा तक जानकारियों को देने का सवाल हैं, वह तो कोई अधिक जानकारी वाला व्यक्ति कम जानकारी वाले को दे सकता है। किन्तु चरित्र गढने वाली शिक्षा में जानकारी देने भर से काम नहीं चल सकता । उसमें खाली उपदेश निरर्थक सिद्ध होते हैं। जब तक प्रतिपादित आदर्श शिक्षक के जीवन में झलकते नहीं दिखते, तब तक यह विश्वास नहीं हो पाता कि ये सिद्धान्त व्यावहारिक भी हैं अथवा नहीं। ध्यान रहे, जलते हुए दीपक ही अपने निकटवर्ती बुझे हुए दीपों को प्रकाशवान बनाने में सफल हो सकते है।
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19) बिना विपत्ति की ठोकर लगे, विवेक की आँख नहीं खुलती।
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20) बिना भजन भोजन नहीं, बिना स्वाध्याय के शयन नही।
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21) बिना प्रशंसा किए किसी को प्रसन्न नहीं किया जा सकता और बिना असत्य भाषण किए किसी की प्रशंसा नहीं की जा सकती।
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22) बिना श्रम के अपनी आवश्यकता पूरी करना चोरी है।
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23) बिना संघर्ष प्रगति असम्भव है।
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24) बिगडी क्यों भारत की साख, भीख मांगते अस्सी लाख।

मनुष्य और मनुष्यता

1) मनुष्य का सबसे बडा शत्रु असंयम है।
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2) मनुष्य का स्वविवेक ही सबसे बडा मार्गदर्शक है।
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3) मनुष्य का जन्म तो सहज हैं पर मनुष्यता उसे कठिन प्रयत्नो से प्राप्त करनी पडती है।
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4) मनुष्य का जन्मजात गुरु उसका विवेक है।
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5) मनुष्य का अन्तःकरण उसके आकार संकेत, गति, चेहरे की बनावट, बोलचाल तथा आँख और मुख के विकारो से मालुम पड जाता है।
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6) मनुष्य के मन की निर्बल आदतों को जन्म देने वाला अन्य कोई नहीं हैं केवल भय ही हैं
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7) मनुष्य के व्यक्तित्व का पहला परिचय व्यवहार से ही मिलता हैं। इसीलिये कहा गया हैं कि व्यवहार मनुष्य की आन्तरिक स्थिति का विज्ञापन है।
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8) मनुष्य के आनन्द को खा जाने वाली महाराक्षसी हैं - ईर्ष्या
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9) मनुष्य महान् हैं और उससे भी महान् हैं उसका सृजेता।
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10) मनुष्य में देवत्व का उदय करना यही तो अध्यात्म है।
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11) मनुष्य जिस-जिस कामना को छोड देता हैं, उस-उस ओर से सुखी हो जाता हैं। कामना के वशीभूत होकर तो वह सर्वदा दुःख ही पाता है।
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12) मनुष्य जितना छोटा होता हैं, उसका अहंकार उतना ही बडा होता है।
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13) मनुष्य भगवद् सृष्टि का श्रेष्ठ और वरिष्ठ प्राणी है।
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14) मनुष्य पार्थिव सुखों को ही सब कुछ मानने की भूल न करे।
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15) मनुष्य शरीर की महिमा वास्तव में विवेकशक्ति के सदुपयोग की महिमा है।
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16) मनुष्य शरीर नहीं आत्मा हैं, उसे चाहिये कि वह शरीर की अपेक्षा आत्मा को अधिक महत्व दे।
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17) मनुष्य व्यवसाय करता हैं पेट के लिये। और सृजन करता हैं आत्मा और परमात्मा की प्रसन्नता के लिये।
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18) मनुष्य चैरासी लाख योनियों में घूमते-घूमते उन सारे-के-सारे प्राणियों के कुसंस्कार अपने भीतर जमा करके लाया हैं, जो मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक नहीं हैं, वरन् हानिकारक है। तो भी वे स्वभाव के अंग बन गये हैं और हम मनुष्य होते हुए भी -पशु-संस्कारो से प्रेरित रहते हैं और पशु प्रवृत्तियों को बहुधा अपने जीवन में कार्यान्वित करते रहते है। इस अनगढपन को ठीक कर लेना, सुगढपन का अपने भीतर से विकास कर लेना, कुसंस्कारो को, जो पिछली योनियों के कारण हमारे भीतर जमे हुए हैं, उनको निरस्त कर देना और अपना स्वभाव इस तरह का बना लेना, जिसकों हम मानवोचित कह सकें- साधना है।
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19) मनुष्य जीवन का लक्ष्य ईश सत्ता में प्रवेश करना है।
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20) मनुष्य जीवन के समय को अमूल्य और क्षणिक समझ कर उत्तम से उत्तम काम में व्यतीव करना चाहिये। एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये।
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21) मनुष्य जीवन पाकर जिसने ज्ञान की कतिपय बूँदें इकट्ठी न की , उसने मानो इस रतन को मिट्टी के मोल खो दिया।
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22) मनुष्य अहंकार को मार कर ही परमात्मा के द्वार तक पहुँच पाता है।
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23) मनुष्य अपना सुधार करने में लग जायें, तो वह संसार की भारी सुधार कर सकता है।
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24) मनुष्य अपने ध्येय को श्रम व तप से ही प्राप्त कर सकता है।

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