शनिवार, 16 जुलाई 2011

गायत्री की गुप्त शक्ति

गायत्री मंत्र सनातन एवं अनादि है। पुराणों में कहा गया है कि सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को आकाशवाणी द्वारा गायत्री मंत्र प्राप्त हुआ था। इसी की साधना का तप करके सृष्टि-निर्माण की शक्ति उन्हें प्राप्त हुई। गायत्री के चार चरणों की व्याख्या स्वरूप ही ब्रह्माजी ने चार मुखों से चार वेदों का वर्णन किया है। गायत्री को वेदमाता कहते हैं। चारों वेद गायत्री की व्याख्या मात्र हैं। गायत्री को जानने वाला, वेदों को जानने का लाभ प्राप्त करता है।

गायत्री के २४ अक्षर अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं के प्रतीक हैं। वेद, शास्त्र, पुराण, उपनिषद् आदि में जो शिक्षाएँ मनुष्य जाति को दी गयी हैं, उन सबका सार इन २४ अक्षरों में मौजूद है। इन्हें अपनाकर मनुष्य व्यक्तिगत तथा सामाजिक सुख शांति को पूर्णरूप से प्राप्त कर सकता है। 

गायत्री, गीता, गंगा और गौ यह भारतीय संस्कृति की चार आधारशिलाएँ हैं। इन सबमें गायत्री का स्थान सर्वप्रथम है। जिसने गायत्री के छिपे हुए रहस्यों को जान लिया, उसके लिए और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता।

समस्त धर्म ग्रंथों में गायत्री की महिमा एक स्वर से कही गई है। समस्त ऋषि, मुनि मुक्त कंठ से गायत्री का गुणगान करते हैं। शास्त्रों में गायत्री की महिमा बताने वाला इतना साहित्य भरा है कि उसका संग्रह किया जाय, तो एक बड़ा ग्रन्थ ही बन सकता है। गीता में भगवान ने स्वयं कहा है- गायत्री छन्दसामहम अर्थात गायत्री छंद मैं स्वयं ही हूँ।

गायत्री उपासना के साथ-साथ अन्य कोई उपासना करते रहने में कोई हानि नहीं। सच तो यह है कि अन्य किसी भी मंत्र का जप करने में- देवता की उपासना में तभी सफलता मिलती है, जब पहले गायत्री द्वारा उस मंत्र या देवता को जाग्रत कर लिया जाय।

गायत्री की साधना द्वारा आत्मा पर जमे हुए मल विक्षेप हट जाते हैं, आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रगट होता है और अनेक ऋद्धि-सिद्धियाँ परिलक्षित होने लगती हैं। जिस प्रकार दर्पण साफ कर देने पर उसका मैल छूट जाता है, उसी प्रकार गायत्री साधना से आत्मा निर्मल एवं प्रकाशवान होकर ईश्वरीय गुणों, सामर्थ्यों एवं सिद्धियों से परिपूर्ण हो जाती है।

आत्मा के कल्याण की अनेक साधनाएँ हैं। सभी का अपना-अपना महत्त्व है और उनके परिणाम भी अलग-अलग हैं। स्वाध्याय से सन्मार्ग की जानकारी होती है। सत्संग से स्वभाव और संस्कार बनते हैं। कथा सुनने से सद्भावनाएँ जाग्रत होती हैं। तीर्थयात्रा करने से भावांकुर पुष्ट होते हैं। कीर्तन से तन्मयता का अभ्यास होता है। दान-पुण्य से सौभाग्यों की वृद्धि होती है। पूजा-अर्चना से आस्तिकता बढ़ती है। इस प्रकार यह सभी साधन ऋषियों ने बहुत सोच-समझ कर प्रचलित किये हैं; पर तप का महत्त्व इन सबसे अधिक है। तप की अग्रि में पडक़र ही आत्मा के मल विक्षेप और पाप-ताप जलते हैं। तप के द्वारा ही आत्मा में वह प्रचण्ड बल पैदा होता है, जिसके द्वारा सांसारिक तथा आत्मिक जीवन की समस्याएँ हल हो सकती हैं। तप की सामर्थ्य से ही नाना प्रकार की सूक्ष्म शक्तियाँ और दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इसीलिए तप साधन को सबसे अधिक शक्तिशाली माना गया है। तप के बिना आत्मा में अन्य किसी भी साधन से तेज, प्रकाश, बल एवं पराक्रम उत्पन्न नहीं होता।

गायत्री उपासना प्रत्यक्ष तपश्चर्या है, इससे तुरंत आत्मबल बढ़ता है। गायत्री साधना एक बहुमूल्य दिव्य संपत्ति है। इस संपत्ति को इकट्ठी करके साधक उसके बदले में सांसारिक सुख एवं आत्मिक आनन्द भली प्रकार प्राप्त कर सकता है।

गायत्री मंत्र से आत्मिक कायाकल्प हो जाता है। इस महामंत्र की उपासना आरंभ करते ही साधक को ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे आत्मिक क्षेत्र में एक नई हलचल एवं रद्दोबदल आरंभ हो गयी है। सतोगुणी तत्त्वों की अभिवृद्धि होने से दुर्गुण, कुविचार, दुरूस्वभाव एवं दुर्भाव घटने आरंभ हो जाते हैं और प्रेम, नम्रता, पवित्रता, उत्साह, स्फूर्ति, श्रमशीलता, मधुरता, ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, उदारता, प्रेम, संतोष, शांति, सेवाभाव, आत्मीयता आदि सद्गुणों की मात्रा दिन व दिन बड़ी तेजी से बढ़ती जाती है। फलस्वरूप लोग उसके स्वभाव एवं आचरण से संतुष्ट होकर बदले में प्रशंसा, कृतज्ञता, श्रद्धा एवं सम्मान के भाव रखते हैं और समय-समय पर उसकी अनेक प्रकार से सहायता करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त सद्गुण स्वयं इतने मधुर होते हैं कि जिस हृदय में उनका निवास होता है, वहीं आत्मसंतोष की परम शांतिदायक शीतल निर्झरिणी सदा बहती रहती है। ऐसे लोग सदा स्वर्गीय सुख का आस्वादन करते हैं। गायत्री साधना से साधक के मनःक्षेत्र में असाधारण परिवर्तन हो जाता है। विवेक, दूरदर्शिता, तत्त्वज्ञान और ऋतंभरा बुद्धि की अभिवृद्धि हो जाने के कारण अनेक अज्ञानजन्य दुःखों का निवारण हो जाता है। प्रारब्धवश, अनिवार्य कर्मफल के कारण कष्ट साध्य परिस्थितियाँ हर एक के जीवन में आती रहती हैं। हानि, शोक, वियोग, आपत्ति, रोग, आक्रमण, विरोध, आघात आदि की विभिन्न परिस्थितियों से जहाँ साधारण मनोभूमि के लोग मृत्यु तुल्य कष्ट पाते हैं, वहाँ आत्मबल-सम्पन्न गायत्री साधक अपने विवेक, ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा, धैर्य, संतोष, संयम और ईश्वर-विश्वास के आधार पर इन कठिनाइयों को हँसते-हँसते आसानी से काट लेता है। बुरी अथवा साधारण परिस्थितियों में भी वह अपने आनंद का मार्ग ढूँढ निकालता है और मस्ती, प्रसन्नता एवं निराकुलता का जीवन बिताता है। 

प्राचीनकाल में ऋषियों ने बड़ी-बड़ी तपस्याएँ और योग साधनाएँ करके अणिमा, महिमा आदि चरम सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। उनके शाप और वरदान सफल होते थे तथा वे कितनी अद्भुत एवं चमत्कारी सामर्थ्यों से भरे-पूरे थे, इनका वर्णन इतिहास, पुराणों में भरा पड़ा है। वह तपस्याएँ और योग साधनाएँ गायत्री के आधार पर ही होती थीं। गायत्री महाविद्या से ही ८४ प्रकार की महान योग साधनाओं का उद्भव हुआ है।

(पं. श्रीराम शर्मा आचार्य)

यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल नैनीताल से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी  हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
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