शनिवार, 16 जुलाई 2011

युवा शक्ति रचनात्मक कार्यों में लगे

युवक समाज की रीढ़ है। युवकों में शक्ति का स्रोत बहता रहता है। वे उस शक्ति का उपयोग भी करना चाहते हैं, पर जब तक उनमें आत्मविश्वास नहीं जगेगा, तब तक न तो वे अपनी शक्ति पहचान पायेंगे और न वे उसका उपयोग कर सकेंगे। आज स्थिति यह बन गई है कि युवकों में देव, गुरु और धर्म के प्रति भी विश्वास कम होता जा रहा है। किसी भी बात को तर्क की कसौटी पर कसे बिना उनका मस्तिष्क उसे मानने को तैयार नहीं होता, पर तर्क भी तो हर कहीं काम नहीं देता। जो कार्य श्रद्धा से बन जाता है, उसे तर्क नहीं बना पाता है।

युवावस्था की उठती उम्र अपने साथ शोभा, सौन्दर्य, आशा, उमंग, जोश, उत्साह ही नहीं लेकर आती, वरन मनुष्य के भाग्य और भविष्य का निर्माण भी इन्हीं दिनों होता है। गीली मिट्टी से ही बर्तन, खिलौने आदि बनते हैं। किशोरावस्था और नवयौवन के दिन ही ऐसे हैं, जिनमें व्यक्तित्व उभरता, ढलता है। कुसंग से इन्हीं दिनों पतन का मार्ग तथा सुसंग से उन्नति का मार्ग बनाया जा सकता है। उपेक्षा अभिभावकों की ओर से बरती जाये या किशोर युवकों की ओर से, उसका परिणाम उच्छृंखलता के रूप में ही हमारे सामने आता है। ब्रह्मचर्य पालन में ढील पडऩे से शरीर खोखला हो जाता है, हमें आत्महीनता घेर लेती है और स्मरणशक्ति नष्ट होने लगती है।

एक बात हर युवक को ध्यान में रखनी चाहिए कि अच्छी नौकरियाँ मिलना दिन-पर-दिन कठिन होता जा रहा है। इसीलिए शिक्षा के साथ-साथ स्वावलम्बन की बात भी सोचनी चाहिए। कृषि, पशुपालन, उद्योग, व्यवसाय आदि की कोई पारिवारिक परंपरा हो, तो उस ओर ध्यान देना चाहिए और घर के बड़ों के साथ हाथ बँटाकर प्रवीणता संचित करनी चाहिए, जिससे नौकरी मिलने में अवरोध उत्पन्न होने पर बिना किसी असमंजस के निर्वाह का आधार तत्काल पकड़ा जा सके। ऐसी पूर्व तैयारी युवकों को रखनी ही चाहिए। इसके लिए अध्ययन काल में ही अवकाश निकाल कर इस प्रकार का अभ्यास करना चाहिए, जो युवकों के लिए स्वावलम्बन का आधार बन सके। 

गंदगी बढ़ाना और सहन करना अपने मानव समाज में घुसा हुआ बहुत बड़ा अभिशाप है। इसे सभ्यता और सुरुचि के लिए प्रस्तुत चुनौती ही समझा जाना चाहिए। श्रमदान से गली-कूचों, नालियों, पोखर-तालाबों, टूटे-फूटे रास्तों के गड्ढों की मरम्मत आदि करने के लिए युवकों की स्वयंसेवा मण्डली चला करे, तो गंदगी फैलाने वालों और सहन करने वालों को भी शर्म आयेगी और इस परोक्ष मार्गदर्शन से सभ्यता का पहला पाठ स्वच्छ रहना सीखेंगे।

हमारी जनसंख्या का बड़ा भाग निरक्षर है। इसके लिए प्रौढ़ पाठशालाओं का होना आवश्यक है। शिक्षितों के लिए श्रीराम झोला पुस्तकालयों द्वारा सत्साहित्य पहुँचाने का प्रबंध होना चाहिए। ये ऐसे रचनात्मक कार्य हैं, जिन्हें हाथ में लेने वालों के सिर पर मुकुट रखे जाने या फोटो छपने जैसी लिप्सा तो नहीं सधती, पर वैसे सेवा में कोई कमी भी नहीं रहती। अपना देश, समाज यदि उठता है, तो उसके मूल में ऐसी ही सृजनात्मक प्रवृत्तियों का योगदान होगा। युवकों में शौर्य, साहस और पराक्रम का जोश होता है। उनके एक कोने में योद्धा भी छिपा रहता है, जो अवांछनीयता से जूझने के समय उभरता है। इस पौरुष को सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध लोहा लेने के लिए लगाया जाना चाहिए। विद्या पढ़ी जाय, विभिन्न कला कौशल और चातुर्य सीखे जायँ, यह सब तो संतोष की बात है, पर सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि इस आयु में जितनी अधिक सतर्कता और तत्परता पूर्वक सद्गुणों का अभ्यास किया जाए, करना चाहिए। एक तराजू में एक ओर विद्या, बल, बुद्धि और धन आदि सम्पत्तियाँ रखी जायँ और दूसरे पलड़े में केवल सद्गुण, तो निश्चय ही दूसरा पलड़ा अधिक भारी और अधिक श्रेयस्कर सिद्ध होगा।

हमारे युवकों को यह बात सदैव याद रखनी चाहिए कि सभ्य समाज के जिम्मेदार नागरिक हमेशा अपने व्यक्तित्व को तेजस्वी बनाने के लिए सद्गुणों को अपने अभ्यास में निरन्तर सम्मिलित करते रहते हैं। शिष्टता ही लोकप्रिय बनाती है। सज्जनों को ही श्रद्धा मिलती है। सद्गुणी दूसरों का हृदय जीतते हैं और दसों दिशाओं में उन पर स्नेह, सहयोग बरसता है। इस राजमार्ग को जिसने अपनाया, उसे ही मनस्वी, तेजस्वी और यशस्वी बनने का अवसर मिला है।

हमारे नवयुवकों को समझना चाहिए कि ध्वंसात्मक दुष्प्रवृत्तियों, अशिष्टता एवं उच्छृंखलता को अपना लेना अति सरल है। छिछोरे साथी उठती आयु के बालकों को आसानी से गुमराह कर सकते हैं, पर शालीनता और सज्जनता का अभ्यासी बनाना उनके वश की बात नहीं। इसलिए हमें व्यक्तित्व के जोशीले और उच्छृंखल लोगों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए, उनके प्रभाव और सान्निध्य से दूर रहना चाहिए, अन्यथा उनकी मैत्री अपने को उच्छृंखल बना देगी और वह स्थिति पैदा कर देगी, जिससे अपनी निज की और दूसरों की आँखों में अपना व्यक्तित्व गया-गुजरा, ओछा, कमीना और निकृष्ट स्तर का बन जाय। इस स्थिति में जो पड़ा, उसके सौभाग्य का सूर्य एवं उज्ज्वल भविष्य अस्त हो गया ही समझना चाहिए।

प्रदूषण भरे वर्तमान समय में वृक्षारोपण से बढक़र पुण्य और कोई हो ही नहीं सकता है। संसार में जितने भी पौधे हैं, उन सबमें तुलसी लगाना सबसे आसान एवं सबसे श्रेष्ठ है। यह सबसे अधिक कीटाणु नाशक एवं स्वास्थ्य संवर्धन करने वाला पौधा है। इसलिए घर-घर में युवकों को तुलसी की पौध लगाने का अभियान चलाना चाहिए।

युवावस्था ही सामाजिक कार्यों को करने का श्रेष्ठ अवसर होता है। यदि महापुरुषों पर दृष्टि डालें, तो हम देखते हैं कि स्वामी विवेकानन्द, शंकराचार्य, दयानन्द, समर्थ गुरु रामदास, शिवाजी, राणा प्रताप, तुलसी दास तथा भगवान बुद्ध आदि सभी ने युवावस्था में ही समाज सेवा के कार्य किये। स्वामी विवेकानन्द जी कहते थे कि जो फूल बिल्कुल ताजा है, जो हाथों से मसला नहीं गया है और जिसे सूँघा नहीं गया है, वही भगवान के चरणों पर चढ़ाया जाता है। उसे ही भगवान स्वीकार करते हैं। इसलिए आज के इस विश्वयुवा दिवस पर अपने राष्ट्र के समग्र विकास के लिए यदि युवा वर्ग संकल्पित होकर कटिबद्ध हो जाए, तो यही उसके लिए सच्ची राष्ट्र भक्ति होगी।

-गौरीशंकर शर्मा

यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल नैनीताल से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी  हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
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