सोमवार, 11 जुलाई 2011

मनुष्य और मनुष्यता

1) मनुष्य का सबसे बडा शत्रु असंयम है।
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2) मनुष्य का स्वविवेक ही सबसे बडा मार्गदर्शक है।
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3) मनुष्य का जन्म तो सहज हैं पर मनुष्यता उसे कठिन प्रयत्नो से प्राप्त करनी पडती है।
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4) मनुष्य का जन्मजात गुरु उसका विवेक है।
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5) मनुष्य का अन्तःकरण उसके आकार संकेत, गति, चेहरे की बनावट, बोलचाल तथा आँख और मुख के विकारो से मालुम पड जाता है।
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6) मनुष्य के मन की निर्बल आदतों को जन्म देने वाला अन्य कोई नहीं हैं केवल भय ही हैं
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7) मनुष्य के व्यक्तित्व का पहला परिचय व्यवहार से ही मिलता हैं। इसीलिये कहा गया हैं कि व्यवहार मनुष्य की आन्तरिक स्थिति का विज्ञापन है।
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8) मनुष्य के आनन्द को खा जाने वाली महाराक्षसी हैं - ईर्ष्या
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9) मनुष्य महान् हैं और उससे भी महान् हैं उसका सृजेता।
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10) मनुष्य में देवत्व का उदय करना यही तो अध्यात्म है।
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11) मनुष्य जिस-जिस कामना को छोड देता हैं, उस-उस ओर से सुखी हो जाता हैं। कामना के वशीभूत होकर तो वह सर्वदा दुःख ही पाता है।
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12) मनुष्य जितना छोटा होता हैं, उसका अहंकार उतना ही बडा होता है।
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13) मनुष्य भगवद् सृष्टि का श्रेष्ठ और वरिष्ठ प्राणी है।
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14) मनुष्य पार्थिव सुखों को ही सब कुछ मानने की भूल न करे।
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15) मनुष्य शरीर की महिमा वास्तव में विवेकशक्ति के सदुपयोग की महिमा है।
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16) मनुष्य शरीर नहीं आत्मा हैं, उसे चाहिये कि वह शरीर की अपेक्षा आत्मा को अधिक महत्व दे।
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17) मनुष्य व्यवसाय करता हैं पेट के लिये। और सृजन करता हैं आत्मा और परमात्मा की प्रसन्नता के लिये।
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18) मनुष्य चैरासी लाख योनियों में घूमते-घूमते उन सारे-के-सारे प्राणियों के कुसंस्कार अपने भीतर जमा करके लाया हैं, जो मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक नहीं हैं, वरन् हानिकारक है। तो भी वे स्वभाव के अंग बन गये हैं और हम मनुष्य होते हुए भी -पशु-संस्कारो से प्रेरित रहते हैं और पशु प्रवृत्तियों को बहुधा अपने जीवन में कार्यान्वित करते रहते है। इस अनगढपन को ठीक कर लेना, सुगढपन का अपने भीतर से विकास कर लेना, कुसंस्कारो को, जो पिछली योनियों के कारण हमारे भीतर जमे हुए हैं, उनको निरस्त कर देना और अपना स्वभाव इस तरह का बना लेना, जिसकों हम मानवोचित कह सकें- साधना है।
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19) मनुष्य जीवन का लक्ष्य ईश सत्ता में प्रवेश करना है।
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20) मनुष्य जीवन के समय को अमूल्य और क्षणिक समझ कर उत्तम से उत्तम काम में व्यतीव करना चाहिये। एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये।
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21) मनुष्य जीवन पाकर जिसने ज्ञान की कतिपय बूँदें इकट्ठी न की , उसने मानो इस रतन को मिट्टी के मोल खो दिया।
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22) मनुष्य अहंकार को मार कर ही परमात्मा के द्वार तक पहुँच पाता है।
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23) मनुष्य अपना सुधार करने में लग जायें, तो वह संसार की भारी सुधार कर सकता है।
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24) मनुष्य अपने ध्येय को श्रम व तप से ही प्राप्त कर सकता है।

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