1) ऋण लेने का स्वभाव दरिद्रता को निमन्त्रण देता है।
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2) ऋषि अर्थात् वे जिनका निर्वाह न्यूनतम मे चलता हों और बची हुयी सामर्थ्य सम्पदा को ऐसे कामों में नियोजित किये रहते हों, जो समय की आवश्यकता पूरी करे।
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3) क्षण-क्षण से विद्या व कण-कण से अर्थ एकत्रित करना चाहिये।
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4) क्षमा करने वाले की आत्मा पवित्र होती है।
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5) द्वेष करने वाला अपने भोजन को विषाक्त कर देता है।
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6) शान्ति रहित आनन्द भौतिक हैं, आनन्द सहित शान्ति शाश्वत है।
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7) शारीरिक और बौद्धिक परिश्रम दोनो ही अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं। दोनो के सम्मिलन से एक पूर्ण परिश्रम का निर्माण होता है।
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8) ढूँढा सब जहाँ में, पाया तेरा पता नहीं, जब पता तेरा लगा तो अब मेरा पता मेरा नही।
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9) झुकता वो जिसमें कुछ जान हैं, अकडना मुर्दो की पहचान है।
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10) झूंठ पर आधारित संबंध रेत की नींव पर बने भवन के समान है।
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11) झूठ बोलना कायरता का चिन्ह है।
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12) झूठ बोलने से वाणी की शक्ति नष्ट होती है।
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13) उर्ध्व उठे फिर ना गिरे, यही मनुज को कर्म । औरन ले ऊपर उठे, इससे बडों न धर्म।।
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14) हृदय की अज्ञान ग्रन्थि का नष्ट होना ही मोक्ष कहा जाता है।
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15) हृदय में प्रेम रहे, बुद्धि में विवेक रहे और शरीर उपकार में लगा रहे।
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16) हृदय नम्र होता नहीं जिस नमाज के साथ, ग्रहण नहीं करता कभी उसको त्रिभुवन नाथ। - मैथिलि शरण जी
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17) ऊँचे काम सदा ऊँचे व्यक्तित्व करते हैं। कोई लम्बाई से ऊँचा नही होता, श्रम, मनोयोग, त्याग और निरहंकारिता ही किसी को ऊँचा बनाती है।
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18) ऊँचे विचार लाने के लिये सादा जीवन आवश्यक है।
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19) ऊँचे उठो, प्रसुप्त को जगाओ, जो महान् हैं, उसका अवलम्बन करो।
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20) इतिहास और अनुभव का प्रत्येक अंकन अपने गर्भ में यह छिपाये बैठा हैं कि अनीति अपनाकर स्वार्थ, संकीर्णता से आबद्ध रहकर हर किसी को पतन और संताप की हाथ लगा हैं। उदार और निर्मल हुए बिना किसी ने भी शान्ति नही पायी है।
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21) इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम का सतत् अभ्यास करो।
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22) इन्द्रिय-निग्रह, अर्थ-निग्रह, समय-निग्रह और विचार-निग्रह यह चार संयम हैं। इन्हे साधने वाले महामानव बन जाते हैं और काम, क्रोध, लोभ, मोह इन चारो से मन को उबार लेने पर लौकिक सिद्धिया हस्तगत हो जाती है।
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23) इन्द्रिया सदैव आत्मा के विरुद्ध संघर्ष करती हैं। अतः सतत् सावधान रहो।
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24) इस युग को बदलेंगे कौन, जो कर सकते सेवा मौन।
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