जीवन जीने की कला- यदि जीवन में गंतव्य का बोध न हो तो भला गति सही कैसे हो सकती हैं। और यदि कहीं पहुँचना ही न हो तो संतुष्टी कैसे पायी जा सकती हैं। जो जीवन जीने की कला से वंचित हैं समझना चाहिए कि उनके जीवन में न तो दिशा हैं और न कोई एकता है। उनके समस्त अनुभव निरे आणविक रह जाते हैं। उनसे कभी भी उस ऊर्जा का जन्म नहीं हो पाता, जो कि ज्ञान बनकर प्रकट होती हैं। ऐसा व्यक्ति सुख-दुःख तो जानता है, पर उसे कभी भी आनन्द की अनुभूति नहीं होती।जीवन में यदि आनन्द पाना हैं तो जीवन को फूलो की माला बनाना होगा। जीवन के समस्त अनुभवों को एक लक्ष्य के धागे में कलात्मक रीति से गूँथना होगा। जो जीने की इस कला को नही जानते है, वे सदा के लिए जिंदगी की सार्थकता एवं कृतार्थता से वंचित रह जाते है।
विचार शक्ति इस विश्व कि सबसे बड़ी शक्ति है | उसी ने मनुष्य के द्वारा इस उबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है | उत्थान-पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है | वस्तुस्तिथि को समझते हुऐ इन दिनों करने योग्य एक ही काम है " जन मानस का परिष्कार " | -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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