रफी अहमद किदवई साहब के एक मित्र की पुत्री का विवाह था। उनसे किदवई साहब का राजनीतिक विरोध था। बोल-चाल तक नही थी । यहाँ तक कि उनने किदवई साहब को विवाह में आमंत्रित तक न किया, किन्तु वे स्वयं वहाँ पहुँचे ओर कन्या को आशीर्वाद दिया ।
उन सज्जन ने जब अपने प्रतिद्वंदी रफी साहब को वहाँ देखा तो पश्चाताप, आत्मग्लानि और स्नेह का प्रवाह उमड़ा कि वे रफी साहब के गले लिपठ गए और क्षमा-याचना करने लगे। रफी साहब विनम्र स्वर में , इतना ही बोले-``आपका -हमारा राजनीतिक मतभेद हो सकता सदा के लिए, किंतु यह तो घर का मामला है । आपकी बेटी, मेरी बेटी है।´´ इस घटना से आपसी मनमुटाव समाप्त हो गया ।
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