सारे मनोरोग विषाद सें आरंभ होते है। कोई ऐसा विधान नही कि विषाद को योग बना दे। लेकिन श्रीमद्भगवद्गीता युगों-युगों से मानव मात्र को विषाद को योग में बदलना सिखाती आई है। पांडवों का सारा जीवन कष्टों मे ही बीता । और कौरवो का जीवन सुख में, ईश्र्या-द्वेष में, भाँति-भाँति के कुचक्रो में बीता । पाडंवो ने जो कुछ भी जीवन विद्या का शिक्षण लिया, वह अपने दु:ख के क्षणों में ही उन्हे मिला । महाभारत में उनके जीवन का अंतिम सोपान आता है, जब युद्ध आरंभ होते ही धनुर्धरश्रेष्ठ अर्जुन विषादग्रस्त हो जाता है- तनाव, अत्यधिक आत्मग्लानि एवं राग की पराकाष्ठा के क्षणों से गुजरता है। तब भगवान उसे मन की चंचल लता से जुझना सिखाते है। अपनी शरण में आने को कहते है। (मामेकं शरणं व्रज)। यह सब आज के अर्जुनो के लिए भी है। आज का युवा दिग्भ्रांत है। परीक्षा आते ही घबरा जाता है। कैसे जूझे ? सीखे गीता के योग से।
`वीरो का कैसा हो वसंत´ जैसी कविताओं की सृजेता सुभद्राकुमारी चौहान (1904-1948) प्रयाग में जन्मी थीं। चौदह वर्ष की अल्पायु में उनका विवाह खंडवा के ठाकुर लक्ष्मणसिंह चौहान के साथ हुआ। ठाकुर साहब स्वयं माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा प्रकाशित , संपादित राष्ट्रवादी पत्र `कर्मवीर´ के सहायक संपादक थे। उन्होने चाहा कि उनकी पत्नी की आगे बढने की इच्छा रोकी नही जानी चाहिए। उन्हें थियोसॉफिकल स्कूल में भरती कर दिया गया। बाद में वे स्वतंत्रता-संग्राम में भी कूद पड़ीं। जेल गई। लौटने पर खांडवा में पति के साथ रहते हुए माखनलाल जी के संमर्क मे आई । उन्होनें सुभद्रा जी की काव्य प्रतिभा को पहचाना । धीरे-धीरे उनकी कविता में देशभक्ति के अंगारे धधकने लगे । `खुब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी´ यह उनकी ही कविता थी । उनकी सरल, सुबोध, चुभती भाषा में लिखी कविताओं ने जन-जन को प्रभावित किया । ठाकुर साहब राष्ट्रदेव की सेवा में अपनी तरह लगे रहे। वे भी गृहस्थी सँभालतीं, साथ ही पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलनों में भाग लेती । वंसत पंचमी ,1948 को एक रोड एक्सीडेंट में वे चल बसी , पर नारी जगत के लिए प्रेरणास्त्रोत बन गई।
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