1) यदि कोई आपको सफल होने में सहयोग देता हैं तो यह आपका भी कर्तव्य बन जाता हैं कि आप उसकी सच्ची सेवा करे।
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2) घर वालो की सेवा करने का पुण्य नही होता, क्योंकि पुण्य को ममता खा जाती है।
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3) इस युग को बदलेंगे कौन, जो कर सकते सेवा मौन।
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4) महत्व इसका नहीं हैं कि हमारे कितने सेवक हैं ? महत्व इसका हैं कि हममें कितना सेवाभाव हैं।
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5) जिसकी अंतरात्मा में विश्वमानव की सेवा करने, इस संसार को अधिक सुन्दर-सुव्यवस्थित एवं सुखी बनाने की भावनाएं उठती रहती हैं और इस मार्ग में चलने की प्रबल प्रेरणायें होती हैं, वस्तुत: सच्चा परमार्थी और ईश्वरभक्त वही है।
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6) जिसका स्वभाव बडो को प्रणाम करने, वृद्ध जनों की सेवा करने का हैं, ऐसे मनुष्य के चार पदार्थ बढते हैं-आयु, विद्या, यश और बल।
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7) नि:स्वार्थ सेवा से अहंकार टूटता हैं, व्यक्ति के अन्दर पवित्र भावना जन्म लेती है।
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8) निस्वार्थ सेवा करने में जिसे स्वयं की भी सुध न रहे उसके हितो की रक्षा स्वयं भगवान को करनी पडती है।
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9) हमें मनुष्य शरीर में आकर दो काम करने है-सेवा करना और भगवान् को याद रखना है।
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10) प्रसन्न रहना ईश्वर की सबसे बडी सेवा है।
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11) संसार में सबसे बडे अधिकार सेवा और त्याग से ही मिलते हैं।
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12) सेवा करके भूल जाओ।
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13) सेवा ही वह सीमेंट हैं जो लोगों को जीवन पर्यन्त स्नेह और साहचर्य में जोड़े रख सकती हैं।
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14) सेवा भाव से सन्तोष बढता हैं और अहसान के भाव से अहंकार पनपता है।
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15) सन्यासी के लिये सेवा कार्य छोडने की जरुरत नहीं हैं, अहंकार और आसक्ति छोडने की जरुरत है।
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16) उदारता, सेवा, सहानुभूति और मधुरता का व्यवहार ही परमार्थ का सार है।
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17) वृद्धों की सेवा से दिव्य ज्ञान होता है।
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18) तुम्हे दया और सेवा करने के लिये भेजा गया हैं, सताने और छीनने के लिये नहीं।
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19) जो हाथ सेवा के लिये आगे बढते हैं वे प्रार्थना करने वाले ओंठो से अधिक पवित्र है।
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20) जो सेवा करते नहीं, प्रत्युत सेवा लेते हैं, उनके लिये जमाना खराब आया है। सेवा करने वाले के लिये तो बहुत बिढया जमाना आया है।
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21) जो उदारता, त्याग, सेवा और परोपकार के लिए कदम नहीं बढा सकता, उसे जीवन की सार्थकता का श्रेय और आनन्द भी नहीं मिल सकता।
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22) जो लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश का इच्छुक हैं उसे साधक पहले बनना चाहिये।
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23) अहंकार को गलाने के लिये निष्काम सेवाभाव एकमात्र उपाय है।
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24) अपना सुधार संसार की सबसे बडी सेवा है।
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