मंगलवार, 28 अक्टूबर 2008

प्रकाश

प्रकाश
हमें ले जाता है
अंतहीन यात्राओं पर
अपने साथ
दिग् से दिगंत तक.

असंख्य लय और ताल और रागों में
व्यक्त करता है प्रकाश अपनी भंगिमाएँ.

उन्ही में से कुछ रहती हैं हमारे साथ
जब हम
निकलते हैं
जीवन की अंतर्यात्राओं पर.

अंधेरे के ख़िलाफ़
हमारे संघर्ष में
सबसे विश्वसनीय
साथी होता है प्रकाश.

वह हमसे संवाद करता है,
हमें हमारी अर्थवत्ता और
इयत्ता के अनसुलझे रहस्य
समझाने के लिए.

वह हमे निष्कलुष संसार में जीने योग्य
बनाने की कोशिश करता है.

हे दीप मालिके !
हमें प्रकाश को समझने की शक्ति प्रदान कर !!

-देवराज (नजीबाबाद)

दीप पर्व 2008
हार्दिक मंगलकामनाए...

जनमानस परिष्कार मंच

शनिवार, 25 अक्टूबर 2008

एक निवेदन


श्रद्धेय सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका
सर्वसाधारण से नम्रतापूर्वक निवेदन किया जाता है कि यदि उचित समझा जाय, तो प्रत्येक मनुष्य प्रतिदिन परमात्मा के और अपने से बडे जितने लोग घर में हो, उन सबके चरणों में प्रणाम करे, हो सके तो बिछौने से उठते ही कर लें, नहीं तो स्नान-पूजादि के बाद करे। गुरु, माता, पिता, ताऊ, चाचा, बडे भाई, ताई, काकी, भौजाई आदि वय, पद और सम्बन्ध के भेद से सभी गुरुजन है।

स्त्री अपने पति के तथा घर में अपने से सब बडी स्त्रियों के चरणों में प्रणाम करे। बडे पुरुषों को दूर से प्रणाम करे, घर में कोई बडा न हो तो स्त्री-पुरुष सभी परमात्मा को ही प्रणाम करे।

इससे धर्म की वृद्धि होगी, आत्मकल्याण में बडी सहायता मिलेगी, परमेश्वर प्रसन्न होगे। इस सूचना के मिलते ही जो लोग इसके अनुसार कार्य आरम्भ कर देंगे, उनकी बडी कृपा होगी।



दीप पर्व 2008
हार्दिक मंगलकामनाए...
जनमानस परिष्कार मंच

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2008

अन्तिम परीक्षा

गुरुकुल दीक्षांत समारोह भी हो गया किंतु तीनों विद्यार्थियों को घर जाने की आज्ञा न मिली। वे सोचने लगे अब क्या बाकी है। सब कुछ तो पढ़ सीख लिया। वर्षो से घर नहीं गये उन्हें याद सता रही थी। सांयकाल होते ही गुरु ने कहा ``तुम तीनों चाहो तो आज जा सकते हो।´´ जाने का नाम सुनकर विद्यार्थी बिना इन्तजार किये शाम को ही चल पड़े। रास्ता पैदल का था। पगडंडी पकड़कर जंगल के रास्ते से जा रहे थे। किंतु गुरु ने पहले ही मार्ग में कॉंटेदार झाड़ियॉं बिछवादी थीं। उनमें से एक विद्यार्थी ने पगडंडी का मार्ग छोड़कर रास्ता पार कर लिया। दूसरे ने छलॉंग लगाकर कॉंटेदार मार्ग पार कर लिया। तीसरा झाड़ियॉं हटाकर रास्ता साफ करने लग गया। सोचा अन्धेरे में दूसरे आगंतुक यात्री उलझेंगे बेचारों को बड़ा कष्ट होगा। साथी जिन्होने रास्ता पार कर लिया था वे बोले छोड़ो भी जल्दी चलो अन्धेरा होने वाला हैं। तीसरा विद्यार्थी जो कॉटा साफ करने में लगा था बोला-``इसीलिए और जरुरी हैं कॉंटा साफ करना कि कोई बेचारा अन्धेरे में उलझ न गिरे। तुम चलो मैं पीछे से आता हूं।"

अचानक झाड़ी में से गुरु प्रकट हुए वे बोले जो दो आगे चले गये हैं वे अंतिम परीक्षा में असफल रहें हैं अभी उन्हें कुछ दिन गुरुकुल में और ठहरना होगा। जिसने कॉंटे बीने थे उस की पीठ थपथपा कर कहा तुम अंतिम परीक्षा में उत्तीर्ण हुए तुम जा सकते हो। गुरु ने कहा अंतिम परीक्षा शब्द की नहीं प्रेम की थी। पांडित्य की नहीं औरो के लिए करुणा की थी।


गुरुवार, 23 अक्टूबर 2008

परम्परा और विवेक


एक व्यापारी एक घोड़े पर नमक और एक गधे पर रुई की गॉठ लादे जा रहा था। रास्ते में एक नदी मिली। पानी में घुसते ही घोड़े ने पानी में डुबकी लगाई तो काफी नमक पानी में घुल गया। गधे ने घोड़े से पूछा, यह क्या कर रहे हो ? घोड़े ने कहा, वनज हलका कर रहा हूँ। यह सुनकर गधे न भी दो डुबकी लगाई, पर उससे गॉंठ भीगकर इतनी भारी हो गई कि उसे ढोने में गधे की जान आफत में पड़ गई।

कुरीतियों, कुप्रचलनों की बिना समझे-बूझे की गई नकल कठिनाइयॉं बढ़ाती हैं, सुविधा नहीं।




मंगलवार, 21 अक्टूबर 2008

श्रद्धा से ही विद्या मिलती हैं


हाथ में समिधायें लेकर दिलीप गुरु वशिष्ठ के पास गये, प्रणाम किया और विनीत भाव से पूछा, ``गुरुदेव ! विद्या प्राप्ति के लिये कौन-सी वस्तु सबसे अधिक आवश्यक है ?

´´वशिष्ठ ने कहा`` ``दिलीप ! जो छात्र श्रद्धा और अनुशासन से रह कर अध्ययन करते हैं विद्या केवल उन्हें ही प्राप्त होती हैं।´´


शनिवार, 18 अक्टूबर 2008

शिक्षक का कर्तव्य

महर्षि आश्वल्यायन को गौरव प्राप्त था कि उनका पढ़ाया हुआ हर छात्र राष्ट्र का प्रतिभाशाली और यशस्वी व्यक्ति है। प्रधानमन्त्री, सेनापति से लेकर कुरुपद का कृषि-पण्डित भी उन्ही का छात्र था। तभी एक दिन उन्होने सुना, उन्हीं का एक छात्र देवदत्त दस्यु हो गया है। उसके क्रूर कर्मो के कारण समस्त कुरुपद में त्राहि-त्राहि मच गई है। कोई भी सेना और सेनापति उसे वश में नहीं कर सका। महर्षि के लिए यह सन्देश वज्राघात के समान था। भीषण रात, आकाश में बादल घिरे हुए, महर्षि को रोका भी गया, पर वे नहीं रुके सीधे वहॉं पहुंचे जहाँ देवदत्त दस्यु कर्म किया करता था। अन्धेरे में एक छाया देखते ही देवदत्त ने ललकारा, रुक जाओ नही तो खड्ग प्रहार करता हूँ, किन्तु आगन्तुक रुका नहीं। देवदत्त का खड्ग छूटा और आगन्तुक के माथे में जा धँसा। रक्त के फव्वारे के साथ आकाश में बिजली चमकी, देवदत्त महर्षि के चरणों में गिर गया। गुरुदेव यह क्या हुआ तीव्र वेदना में देवदत्त चिल्लाया। महर्षि ने कहा- ``वत्स ! मेरे शिक्षण में कुछ कमी रह गयी थी, उसका दण्ड मुझे मिलना ही था।´´ देवदत्त गुरु का आशय समझ गया फिर उसने कभी भी डकेती नहीं डाली।

गुरुवार, 16 अक्टूबर 2008

दु:ख भुलाना और सुख को याद रखना

दो दोस्त एक रेगिस्तान से गुजर रहे थे। बीच रास्ते में उनके बीच बहस छिड गयी और पहले दोस्त ने दूसरे को थप्पड लगा दिया। जिसे थप्पड पडा उसने बिना कुछ कहे, रेत पर लिखा। ``आज मेरे सबसे अच्छे दोस्त ने मुझे थप्पड मारा।´´ ऐसा लिखकर वे दोनो साथ चल दिये। रास्ते में नदी आयी। दूसरा दोस्त उसमें नहाने के लिये उतरा और डूबने लगा। पहले दोस्त ने तुरन्त नदी में कूद कर उसकी जान बचायी। इस बार उस दोस्त ने पत्थर पर लिखा। ``आज मेंरे सबसे अच्छे दोस्त ने मेरी जान बचायी। पहले ने उससे रेत और पत्थर पर लिखने का कारण पूंछा तो उसने जवाब दिया। `` 

जब कोई तकलीफ पहुंचाये तो उसे रेत पर लिखना चाहिये ताकि क्षमा की हवा उसे मिटा सके। लेकिन यदि कोई अच्छा करे तो उसे पत्थर पर लिखना चाहिये, जिससे कोई भी उसे भुला न सके। ``दु:ख भुलाना और सुख को याद रखना खुद अपने हाथ में है।


रविवार, 12 अक्टूबर 2008

महत्वाकांक्षा

एक बूढ़ा घास खोदने में सबेरे से लगा हुआ था। दिन ढलने तक वह इतनी खोद सका था, जिसे सिर पर लाद कर घोड़े वाले की हाट में बेचने ले जा सके।

एक सुशिक्षित देर से उस बुड्ढ़े के प्रयास को देख रहा था। सो उसने पूछा, क्यों जी, दिन भर परिश्रम से जो कमा सकोगे, उससे किस प्रकार तुम्हारा खर्च चलेगा ? घर में तुम अकेले ही हो क्या ?

बूढे ने मुस्कराते हुए कहा, कई व्यक्तियों का मेरा परिवार है। जितने की घास बिकती है, उतने से ही हम लोग व्यवस्था बनाते है और काम चला लेते है।

युवक को आश्चर्यचकित देख कर बूढे ने पूछा, मालुम पड़ता है, तुमने अपनी कमाई से बढ़-चढ़ कर महत्वाकांक्षाएं संजो रखी है, इसी से तुम्हे गरीबी पर गुजारे से आश्चर्य होता हैं।

युवक से ओर तो कुछ कहते न बन पड़ा, पर अपनी झेंप मिटाने के लिए कहने लगा। गुजारा ही तो सब कुछ नहीं है, दान-पुण्य के लिए भी तो पैसा चाहिए।

बुड्ढा हँस पड़ा। उसने कहा, मेरी घास में तो बच्चों का पेट ही भर पाता है, पर मैंने पड़ोसियो से मॉंग-मॉंग कर एक कुआ बनवा दिया है, जिससे सारा गॉंव लाभ उठाता है। क्या दान-पुण्य के लिए अपने पास कुछ न होने पर दूसरे समर्थों से सहयोग माँग कर कुछ भलाई का काम कर सकना बुरा है।

युवक चला गया। रात भर सोचता रहा कि महत्वाकांक्षाएं संजोने ओर उन्ही की पूर्ति में जीवन लगा देना ही क्या एकमात्र तरीका जीवन जीने का है।


रविवार, 5 अक्टूबर 2008

भावना

रामानुजाचार्य को उसके गुरु ने कई विद्या सिखाईं। ज्ञानदीक्षा सम्पन्न करते हुए उनके आचार्य ने कहा, ``रामानुज नीच जाति के लोगों को यह ज्ञान मत देना।´´ इस पर रामानुज बोले, ``गुरुदेव ! जिसका गिरे हुओं को उठाने में उपयोग न हो, वह क्षिक्षा मुझे नहीं चाहिए।`` शिष्य की विशाल भावना देखते हुए आचार्य ने स्वेच्छा से उसके उपयोग करने की स्वीकृति दे दी।


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