शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2008

अन्तिम परीक्षा

गुरुकुल दीक्षांत समारोह भी हो गया किंतु तीनों विद्यार्थियों को घर जाने की आज्ञा न मिली। वे सोचने लगे अब क्या बाकी है। सब कुछ तो पढ़ सीख लिया। वर्षो से घर नहीं गये उन्हें याद सता रही थी। सांयकाल होते ही गुरु ने कहा ``तुम तीनों चाहो तो आज जा सकते हो।´´ जाने का नाम सुनकर विद्यार्थी बिना इन्तजार किये शाम को ही चल पड़े। रास्ता पैदल का था। पगडंडी पकड़कर जंगल के रास्ते से जा रहे थे। किंतु गुरु ने पहले ही मार्ग में कॉंटेदार झाड़ियॉं बिछवादी थीं। उनमें से एक विद्यार्थी ने पगडंडी का मार्ग छोड़कर रास्ता पार कर लिया। दूसरे ने छलॉंग लगाकर कॉंटेदार मार्ग पार कर लिया। तीसरा झाड़ियॉं हटाकर रास्ता साफ करने लग गया। सोचा अन्धेरे में दूसरे आगंतुक यात्री उलझेंगे बेचारों को बड़ा कष्ट होगा। साथी जिन्होने रास्ता पार कर लिया था वे बोले छोड़ो भी जल्दी चलो अन्धेरा होने वाला हैं। तीसरा विद्यार्थी जो कॉटा साफ करने में लगा था बोला-``इसीलिए और जरुरी हैं कॉंटा साफ करना कि कोई बेचारा अन्धेरे में उलझ न गिरे। तुम चलो मैं पीछे से आता हूं।"

अचानक झाड़ी में से गुरु प्रकट हुए वे बोले जो दो आगे चले गये हैं वे अंतिम परीक्षा में असफल रहें हैं अभी उन्हें कुछ दिन गुरुकुल में और ठहरना होगा। जिसने कॉंटे बीने थे उस की पीठ थपथपा कर कहा तुम अंतिम परीक्षा में उत्तीर्ण हुए तुम जा सकते हो। गुरु ने कहा अंतिम परीक्षा शब्द की नहीं प्रेम की थी। पांडित्य की नहीं औरो के लिए करुणा की थी।


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