सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

शरीर की विभिन्न देव-शक्तियों का जागरण

विराट ब्रह्म की कल्पना में-विश्वपुरुष के शरीर में जहाँ-तहाँ विभिन्न देवताओं की उपस्थिति बताई गई है । गौ माता के शरीर में विभिन्न देवताओं के निवास का चित्र देखने को मिलता है । मनुष्य-शरीर भी एक ऐसा आत्मसत्ता का दिव्य मंदिर है, जिसमें विभिन्न स्थानों पर विभिन्न देवताओं की स्थिति मानी गई है । धार्मिक कर्मकाण्डों में स्थापना भाव भक्ति के आधार पर की जाती है । न्यासविधान इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए है । सामान्यतः ये सभी देवता प्रसुप्त स्थिति में रहते हैं, अनायास ही नहीं जाग पड़ते । अनेक साधनाएँ, तपश्चर्याएं इसी जागरण के हेतू हैं, सोता सिंह या सोता सर्प निर्जीव की तरह पड़े रहते हैं, पर जब वे जाग्रत होते हैं, तो अपना पूरा पराक्रम दिखाने लगते हैं । यही प्रक्रिया मंत्र-साधना द्वारा भी पूरी की जाती है । इस तथ्य को इस रूप में समझा जा सकता है कि मंत्र-साधना, विशेषतः गायत्री-उपासना से एक प्रकार का लुज-पुंज व्यक्ति जाग्रत, सजीव एवं सशक्त हो उठता है । उसी उभरी विशेषता को मंत्र की प्रतिक्रिया या फलित हुई सिद्धि कह सकते हैं । 
गायत्री मंत्र के चौबीस अक्षरों में सभी विभूतियों के जागरण की क्षमता है, साथ ही हर अक्षर एक ऐसे सद्गुण की ओर इंगित करता है, जो अपने आप में इतना सशक्त है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का हर पक्ष ऊँचाई की ओर उभारता है और उसकी सत्ता अपने आप ही अपना काम करने लगती है । फिर उन सफलताओं का उपलब्ध कर सकना सम्भव हो जाता है, जिनकी कि किसी देवी-देवता अथवा मंत्राराधन से आशा की जाती है । ओजस्, तेजस्, वर्चस् इन्हीं हो कहते हैं । प्रथम चरण में सूर्य जैसी तेजस्विता, ऊर्जा और गतिशीलता मनुष्य में उभरे तो समझना चाहिए कि उसने वह बलिष्ठता प्राप्त कर ली, जिसकी सहायता से ऊँची छलांग लगाना और कठिनाइयों से लड़ना सम्भव होता है । इसी प्रकार दूसरे चरण में देवत्व के वरण की बात है । मनुष्यों में ही पशु, पिशाच और देवता होते हैं। उसमें शालीनता, सज्जनता, विशिष्टता व भलमनसाहत देवत्व की विशेषताओं का ही प्रतिनिधित्व करती है । तीसरे चरण में सामुदायिक सद्बुद्घि के अभिवर्द्घन का निर्देशन है। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता, इसलिए कहा जाता है कि एकाकी स्तर के चिंतन तक सीमित न रहा जाए, सामूहिकता, सामाजिकता को भी उतना ही महत्त्व दिया जाए-सद्बुद्घि से अपने समेत सबको सुसज्जित किया जाए। यह भूल न जाया जाए कि र्दुबुद्घि ही दुष्टता और भ्रष्टता की दिशा उत्तेजना देती है और यही दुर्गति का निमित्त कारण बनती है । 
दर्शन और प्रक्रिया मिलकर ही अधूरापन दूर करते हैं । गायत्री मंत्र का उपासनात्मक कर्मकांड भी फलप्रद हैं, क्योंकि शब्द-गुम्फन अंतः की सभी रहस्यमयी शक्तियों को उत्तेजित करता है, पर यह भी भूला न जाए कि स्वच्छ, शुद्घ, परिष्कृत व्यक्तित्व जब गुण-कर्म स्वभाव की उत्कृष्टता से परिष्कृत-अनुप्राणित होता है, तभी वह समग्र परिस्थिति बनती है, जिसमें साधना से सिद्घि की आशा की जा सकती है । घिनौने, पिछड़े, अनगढ़ और कुकर्मी व्यक्ति यदि पूजा-पाठ करते भी रहें तो उसका कोई उपयुक्त प्रतिफल नहीं देखा जाता । ऐसे ही एकांगी प्रयोग जब निष्फल रहते हैं तो लोग समूची उपासना तथा आध्यात्मिकता को व्यर्थ बताते हुए देखे जाते हैं । बिजली के दोनों तार मिलने पर ही करेंट चालू होता है अन्यथा वे सभी उपकरण बेकार हो जाते हैं, जो विभिन्न प्रयोजनों से लाभान्वित करने के लिए बनाए गए हैं । 

इसीलिए उपासना के साथ जीवनसाधना और लोकमंगल की आराधना को भी संयुक्त रखने का र्निदेश है । पूजा उन्हीं की सफल होती है, जो व्यक्तित्व और प्रतिभा को परिष्कृत करने में तत्पर रहते हैं, साथ ही सेवा-साधना एवं पुण्य परमार्थ को सींचने, खाद लगाने में भी उपेक्षा नहीं बरतते । त्रिपदा गायत्री में जहाँ शब्द-गठन की दृष्टि से तीन चरण हैं, वहीं साथ में यह भी अनुशासन है कि धर्म-धारणा और सेवा-साधना का खाद-पानी भी उस वट-वृक्ष को फलित होने की स्थिति तक पहुँचाने के लिए ठीक तरह सँजोया जाता रहे । 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

कोई टिप्पणी नहीं:

LinkWithin

Blog Widget by LinkWithin