1) परमात्मा पूजा से नही, प्रेम से मिलता है।
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2) परमेश्वर को खो देना ही विपत्ति हैं और उसे पा लेना ही सम्पत्ति है।
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3) परहित के लिये थोडा सा कार्य करने से भीतर की शक्तियाँ जाग्रत होती है।
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4) परहित में स्वहित निहित हैं। दूसरे के अपकार या उत्पीडन में भले ही वह मानसिक ही क्यों न हो, स्वहित का दिखायी देना मृगमरीचिका है।
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5) परीक्षा की घडी ही मनुष्य को महान् बनाती हैं, विजय की घडी नही।
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6) परपीडा से छलक उठे मन, यह छलकन ही गंगाजल है।
दुःख हरने को पुलक उठे मन, यह पुलकन ही तुलसीदल हैं।।
जो अभाव में भाव भर सके, वाणी से रसदार झर सके।
जनहिताय अर्पित जो जीवन, यह अर्पण ही आराधन है।।
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7) परोपकार का प्रत्येक कार्य स्वर्ग की ओर एक कदम है।
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8) परोपकार मूर्खता नहीं बुद्धिमानी हैं, क्योकि इसका कई गुना लाभ हमें भी मिलता है।
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9) परचर्चा-परनिंदा में नहीं , स्व सृजन में हैं सार्थकता।
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10) पाण्डव पाँच हमें स्वीकार, कौरव सौ धरती का भार।
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11) पात्रता का दूसरा नाम परिश्रम है।
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12) पात्रताः- पात्रता यदि हो, तो अनुकम्पा कहीं से भी प्राप्त हो जाती हैं। क्षेत्र भौतिक हो या आध्यात्मिक, सर्वत्र याग्यता की ही परख होती हैं। जो योग्य होते हैं उन्हे पद, प्रतिष्ठा, सहायता, सम्मान सब कुछ प्राप्त होते है। अयोग्यो और अपात्रो की तो हर रोज उपेक्षा ही होती है। हम पात्रता विकसित करें, सहायता स्वयमेव खिंची चली आयेगी।
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13) पारिवारिक आनन्द के लिए गहन अन्तस्तल से निकलने वाले सद्भाव की आवश्यकता हैं और इसे केवल वे ही उपलब्ध कर सकते हैं जो स्वयं उदार, सहृदय और सेवा भावनाओ से परिपूर्ण हो। परिवार में स्वर्गीय वातावरण का सृजन केवल जीवन विद्या के आदर्श ही कर सकते है।
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14) पाप की कौडी पुण्य का सोना भी खींच ले जाती है।
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15) पाप की अवहेलना मत करो।
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16) पाप का निश्चित परिणाम दुःख है।
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17) पाप का आरम्भ लालच से होता है।
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18) पाप सभी बीमारियों से बुरा हैं, क्योकि वह आत्मा पर चोट करता है।
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19) पानी जितना गहरा होता हैं, उतना ही शांत रहता है।
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20) पानी हैं तब तक, जंगल हैं जब तक।
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21) पाँच अंगो ( दो हाथ, दो पैर और मुँह ) को गीला कर पूर्व की ओर मुँह कर मौन हो भोजन करे।
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22) पद और धन सुनहरी बेडि़या है।
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23) पदार्थ विज्ञान में प्रयोग करना पडता हैं, अध्यात्म विज्ञान में प्रयोग की आवश्यकता नही।
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24) पुरुष अपने ही क्रिया-कलापो से बना हैं। वह जैसा सोचता हैं वैसा ही हो जाता है।
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