1) महानता एवं मानवता का गुण न तो किसी के लियें सुरक्षित हैं और न किसी के लिये प्रतिबंधित। जो चाहे अपनी शुभेच्छाओ से उसे प्राप्त कर सकता है।
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2) महानता के दो आधार, सादा जीवन उच्च विचार।
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3) महत्व इसका नहीं हैं कि हमारे कितने सेवक हैं ? महत्व इसका हैं कि हममें कितना सेवाभाव हैं।
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4) मात्र आहार पर ही शारीरिक स्वास्थ्य निर्भर नहीं रहता। जलवायु, मनःस्थिति और संयम-नियम पर भी बहुत हद तक अवलम्बित है। हिमालय का शीतप्रधान वातावरण, निरन्तर गंगा जल का उपयोग, हर काम में समय की नियमित व्यवस्था, भूख से कम खाने से पाचन सही होना, चित्त का दिव्य चिन्तन में निरत रहना, मानसिक विक्षोभ और उद्वेग का अवसर न आना यह ऐसे आधार हैं, जिनका मूल्य पौष्टिक आहार से हजार गुना ज्यादा है। तपस्वी लोग सुविधा-साधना का, आहार का अभाव रहने पर भी दीर्घजीवी, पुष्ट और सशक्त रहते हैं, उसका कारण उपर्युक्त हैं जिसका महत्व आमतौर से नहीं समझा जाता है।
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5) मामूली सा अभ्रक जब सौ बार अग्नि मे तपाया जाता हैं, तो चन्द्रोदय रस बन जाता है।
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6) मालिक बारह घण्टे काम करता हैं, नौकर आठ घण्टे काम करता हैं, चोर चार घण्टे काम करता हैं। हम सब अपने आप से पूछे कि हम तीनो में से क्या है।
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7) माता की ममता एक साचे की तरह हैं, जिसमें वह अपने मन के अनुरुप अपनी सन्तान का निर्माण करती है।
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8) माता में हो यदि अज्ञान, बच्चे कैसे बने महान्।
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9) माता वह जो पुत्र को उत्कृष्टता की ओर ले जाती है।
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10) माता-पिता, पति, गुरु की परतन्त्रता में महान् स्वतन्त्रता है।
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11) मौलिकता अपनेपन में स्थिर रहना हैं और सही-सही वह कहना हैं जो हम हैं और देखते है।
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12) मौन इतना गम्भीर हैं, जितनी अखिल सृष्टि, वाणी इतनी उथली हैं जितना काल।
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13) मौन विचारों की आत्मा है।
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14) मौन ही प्रारम्भ हैं, मौन ही अन्त हैं, और यदि तुम एक ध्यानी हो तो मौन ही मध्य है। मौन अस्तित्व का समुचा ताना-बाना है।
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15) मौन और एकान्त आत्मा के सर्वोत्तम मित्र है।
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16) मोटा उपर छोटा को हैं सदा सो भार। मटकी उपर छुकलियो देख परेंडे जार।
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17) मान-अपमान में सम रहे।
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18) मानसिक पापो से सदैव बचे।
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19) मानसिक चेतना असंख्य रचनात्मक क्षमताओं की स्त्रोत है।
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20) मानव धर्म ही हिन्दू धर्म की परिसीमा और पूर्णता मानी गयी है।
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21) मानव कर्म से ब्राह्मण होता हैं, कर्म से क्षत्रिय होता हैं, कर्म से वैश्य होता हैं, और कर्म से शुद्र होता है।
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22) मानव की सबसे बडी आवश्यकता शिक्षा नहीं, चरित्र हैं और यहीं उसका सबसे बडा रक्षक है।
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23) मानव को विवेक का आश्रय लेना चाहिये। विवेक द्वारा मनुष्य दुगुर्णो से विमुख होकर सद्गुणो की ओर उन्मुख होता है।
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24) मानव मात्र एक समान, एक पिता की सब सन्तान।
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